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________________ ७०० प्रमेयकमलमार्त्तण्डे कानां तन्निश्चः; न; अत्राप्यारेकाऽनिवृत्तेः स्वशिष्यपक्षपातेनान्यथापि तेषां वचनसम्भवात् । यदि पुनर्वादी वादप्रवृत्तेः प्राक् प्राश्निकेभ्यः प्रतिपादयति - मदीयपत्रस्यायमर्थ:, अत्रार्थान्तरं ब्रुवन् प्रतिवादी भवद्भिर्निवारणीयः' इति । श्रत्रापि प्रागप्रतिपत्रपत्रार्थानां महामध्यस्थानामुभयाभिमतानामक स्मादाहूतानां सभ्यानां मध्ये विवादकरणे का वार्त्ता ? ' पत्राद्यः प्रतीयते स एव तत्र तदर्थ:' इति चेत्; अन्यत्रापि स एवास्त्वविशेषात् । तन्नाद्यः पक्षो युक्तः । नापि द्वितीयः । न खलु प्रतिवादी वादिमनो जानाति येन 'योस्य मनसि वर्त्तते स एव मयार्थो निश्चित:, इति जानीयात् । एतेन तृतोयोपि पक्षश्चिन्तितः; सभ्यानामपि तन्निश्चयोपायाभावात् । किञ्चेदं पत्रं तद्दातुः स्वपक्षसाधनवचनम् परपक्षदूषणवचनम्, उभयवचनम्, अनुभयवचनं वा ? समाधान - यह भी ठीक नहीं, ऐसा करने पर भी संशय समाप्त नहीं हो सकता, क्योंकि वे गुरुजन भी अपने शिष्य के पक्षपात के कारण अन्यथा वचन कह सकते हैं अर्थात् वादी के गुरु जब देखेंगे कि वादी ने जो अर्थ मेरे को बताया था वही प्रतिवादी कह रहा और इससे प्रतिवादी का निग्रह सम्भव नहीं । तब वे स्वशिष्य के जयार्थ अन्य ही कोई अर्थ बता सकते हैं । यदि ऐसा माना जाय कि वादी वाद प्रारंभ होने के पहले प्राश्निकजनों को बतला देता है कि मेरे पत्र का यह अर्थ है, इसमें प्रतिवादी अर्थान्तर - दूसरा अर्थ बोलेगा तो ग्राप उसका निवारण करना, तो यदि जो पहले से पत्र के अर्थ को नहीं जानते हैं महामध्यस्थ हैं वादी प्रतिवादी दोनों को मान्य हैं ऐसे अचानक बुलाये गये सभ्यजनों के मध्य में विवाद करने पर क्या होगा यदि कहा जाय कि उस वक्त पत्र से जो अर्थ प्रतीत हो रहा है वही अर्थ उन ग्रकस्मात् बुलाये गये सभ्यों में होने से पत्रार्थ का निश्चय होवेगा । तो पूर्व से उपस्थित सभ्यों में भी यह निश्चय होवे कोई विशेषता नहीं है । इसलिये पत्र से प्रतीत होता है और जो पत्रदाता वादी के चित्त में है वह पत्र का अर्थ है इस बात को वादी जानता है ऐसा प्रथम पक्ष मानना युक्त नहीं है । दूसरा पक्ष - पत्र से जो प्रतीत है और जो वादो के मनोगत है वह पत्रका अर्थ है इस बात को प्रतिवादी जानता है ऐसा कहना भी गलत है, क्योंकि प्रतिवादी वादी के मनको जानता तो है नहीं जिससे वह ज्ञात कर सके कि जो इसके मन में है। वही अर्थ मैंने निश्चित किया है। तीसरा पक्ष - पत्र से जो प्रतीत है और वादी के जो मनोगत है वह पत्रार्थ है इस बात को प्राश्निक जन ज्ञात करते हैं ऐसा कहना भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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