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________________ सामान्यस्वरूपविचार: नैकरूपा मतित्वे मिथ्या वक्तुं च शक्यते । नात्र कारणदोषोस्ति बाधकप्रत्ययोपि वा ||२|| " [ मी० श्लो० वनवाद श्लो० ४७-४६ ] तदप्युक्तिमात्रम् ; प्रतिपिण्डं कृत्स्नरूपपदार्थाकारत्वस्य सदृशपरिणामाविनाभावित्वेन साध्यविपरीतार्थे साधनस्य विरुद्धत्वात् । नित्यैकरूप प्रत्येकपरिसमाप्तसामान्य साधने दृष्टान्तस्य साध्यविकलता । तथाभूतस्य चास्य सर्वात्मना बहुषु परिसमाप्तत्वे सर्वेषां व्यक्तिभेदानां परस्परमेकरूपतापत्तिः एकव्यक्तिपरिनिष्ठितस्वभावसामान्यपदार्थसंसृष्टत्वात् एकव्यक्तिस्वरूपवत् । सामान्यस्य वानेकत्वापत्तिः, युगपदन के वस्तुपरिसमाप्तात्मरूपत्वात् दूरतरदेशावच्छिन्नानेकभाजनगत बिल्वादि ३१ हुआ करता है ||१|| गोत्व रूप सामान्य विषय में उत्पन्न हुई इस एकत्व बुद्धि Ant मा भी नहीं कह सकते, क्योंकि इस बुद्धि के कारण जो इन्द्रियादि हैं उनमें सदोषता नहीं है तथा इस बुद्धि को बाधित करने वाला अन्य ज्ञान भी नहीं है ||२|| Jain Education International जैन-मीमांसक का यह अनुमानिक कथन गलत है, इस अनुमान का कृत्स्न रूप पदार्थाकारत्व नामा हेतु ( गोत्वादि सामान्य कृत्स्न रूप से पदार्थ के आकार होना ) साध्य जो सर्वगतत्व है उससे विरुद्ध असर्वगतत्व को सिद्ध कर देता है, यह हेतु तो सदृश परिणाम का अविनाभावी है परवादी सामान्य को नित्य, एक तथा प्रत्येक व्यक्ति में परिसमाप्त होना रूप सिद्ध करना चाहते हैं, किन्तु दृष्टांत में ऐसी बात नहीं होने से वह साध्य विकल ठहरता है । अर्थात् गो है, गो है, इस प्रकार का अनुगताकार ज्ञान एक एक व्यक्ति के प्रति समवेत हुए सामान्य को विषय करने वाला है ऐसा साध्य है वह "जैसे प्रत्येक व्यक्ति को विषय करने वाला ज्ञान" इस प्रकार के दृष्टांत में पाया नहीं जाता है । सर्वथा एकत्व रूप माना गया यह सामान्य यदि सर्वात्मना बहुत से गो आदि विशेषों में परिसमाप्त होकर रहता है तो संपूर्ण गो व्यक्तियों के भेद परस्पर में एक मेक हो जायेंगे, क्योंकि उन सभी व्यक्तियों ने एक व्यक्ति में परिनिष्ठित स्वभाव वाले सामान्य पदार्थ के साथ अभिन्न संश्लेष किया है, जैसे कि एक व्यक्ति का स्वरूप उसमें परिनिष्ठ होने से एक मेक होता है, अथवा सामान्य में अनेकपने का प्रसंग आता है, देखिये ! आपका वह सामान्य एक साथ अनेक वस्तुनों में परिसमाप्त होकर रहता है अतः अनेक ही हैं, जैसे कि भिन्न भिन्न दूर स्थानों में स्थित अनेक बर्तनों में रखे हुए बेल, आंवला आदि फल एक साथ अनेक बर्तनों में मौजूद होने से अनेक ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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