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________________ पत्रविचारः ६८७ विश्वयदित्यादिसर्वनामपाठापेक्षया यदन्तो विश्वशब्दो 'यत् अन्ते यस्य' इति व्युत्पत्तेः । तेन राणीयं शब्दनीयं विश्वमित्यर्थः । तदनेकान्तात्मकं विश्वमिति पक्षनिर्देश: । पारेका संशयः, सा अन्ते यस्येत्यारेकान्तः प्रमेयः "प्रमाणप्रमेयसंशय" [न्यायसू० १११।१] इत्यादिपाठापेक्षया, स प्रात्मा यस्य तदारेकान्तात्मकम्, तस्य भावस्तत्त्वं तस्मात्, इति साधनधर्मनिर्देशः । यदित्थं न भवति यच्चित्रान्न भवति तदित्थं न भवति पारेकान्तात्मकं न भवति यथाऽकिश्चित् =न किञ्चित् अथवा अकिञ्चित् सर्व थैकान्तवाद्यभ्युपगतं तत्त्वम् । इति त्रयोऽवयवा: पत्रे क्वचित्प्रयुज्यन्ते । तथा चेदमिति पक्षधर्मोपसंहारवचने चत्वारः । तस्मात्तथाऽनेकान्तव्यापीति निर्देशे पञ्चति । यच्चेदं यौगैः स्वपक्षसिद्ध्यर्थं पत्रवाक्यमुपन्यस्तम्-सैन्यलड्भाग् नाऽनन्तरानार्थप्रस्वापकृदाऽऽ विश्व प्रादि सर्वनामों के पाठ की अपेक्षा यत् शब्द के अन्त में विश्व शब्द है, यत् है अंत में जिसके उसे कहते हैं 'यदन्त' इसतरह यदन्त शब्द की निरुक्ति है । उससे राणीयं कहने योग्य विश्व है। इसप्रकार 'चित्राद्यन्तराणीयं' यह पक्ष निर्देश हुआ इसका अर्थ विश्व [जगत् ] अनैकान्तात्मक [ अनेक धर्मात्मक ] है । पारेका मायने संशय वह है अन्त में जिसके उसे कहते हैं पारेकान्त अर्थात् न्यायसूत्र के [ नैयायिक ग्रंथ के ] पाठ की अपेक्षा संशय पद प्रमेय के अन्त में हैं अतः पारेकान्त कहने से प्रमेय आता है, वह जिसकी अात्मा अर्थात् स्वरूप है वह पारेकान्तात्मक कहलाया और उसमें भाव अर्थ का त्व प्रत्यय जोड़कर पंचमी निर्देश कर देने पर "पारेकान्तात्मकत्वतः" बना, यह हेतु निर्देश है। जो ऐसा चित्रात् [अनेकान्तात्मक नहीं होता वह उसप्रकार पारेकान्तात्मक [प्रमेय] नहीं होता, जैसे कि अकिञ्चित् वस्तु, न किञ्चित् इति अकिञ्चित् अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी का माना गया तत्त्व । उपर्युक्त संपूर्ण विश्लेषण का संक्षेप यह हुआ कि, सम्पूर्ण पदार्थ अनेकान्तात्मक है, प्रमेय होने से, जो अनेक धर्मात्मक नहीं होता वह प्रमेय नहीं होता, जैसे एकान्तवादी का तत्त्व प्रमेय नहीं है। इसतरह के तीन अवयव किसी पत्र में प्रयुक्त होते हैं। इसमें पक्ष धर्म का उपसंहार अर्थात् उपनय अवयव जोड़े अर्थात् “यह प्रमेयरूप है' तो चार अवयव होते हैं । तथा "तस्मात् तथा" प्रतः अनेकान्तात्मक विश्व है ऐसे निगमन के प्रयुक्त होने पर पांच अवयववाला अनुमान बनता है। अब योग द्वारा स्वपक्ष की सिद्धि के लिये प्रयुक्त हुए पत्र के अनुमान वाक्य को उपस्थित करते हैं-"सैन्यलड् भाग् नाऽनंतरानार्थ प्रस्वापकृदाऽऽशैट्स्यतोऽनीक्टो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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