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________________ पत्रविचार: ६८५ गोपनाद्धि पदानां गोपनं विनिश्चितपदस्वरूपतदभिधेयतत्त्वेभ्योपि परेभ्य : सम्भवत्येव । तस्योक्तप्रकारस्य पत्रस्यावयवौ क्वचिद्वावेव प्रयुज्येते तावतैव साध्यसिद्ध: । तद्यथा "स्वान्तभासितभूत्याद्ययन्तात्मतदुभान्तवाक् । परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीतस्वात्मकत्वतः" [ ] इति । एव अन्त ह्यान्तः, स्वार्थिकोऽण् वानप्रस्थादिवत् । प्रादिपाठापेक्षया सोरान्तः स्वान्तः उत्, तेन भासिताद्योतिता भूतिरुद्भ तिरित्यर्थः । सा प्राद्या येषां ते स्वान्तभासितभूत्याद्या: ते च ते त्र्यन्ताश्च उद्भ तिव्यय ध्रौव्यधर्मा इत्यर्थः । ते एवात्मान: तांस्तनोतीति स्वान्तभासितभूत्याद्ययन्तात्मतत् इति साध्यधर्मः । उभान्ता वाग्यस्य तदुभान्तवाक्=विश्वम्, इति धर्मि । तस्य साध्यधर्मविशिष्टस्य निर्देश: । उत्पादादित्रिस्वभावव्यापि सर्वमित्यर्थः । परान्तो यस्यातौ परान्त: प्र:, स एव द्योतितं द्योतन मुपसर्ग इत्यर्थः । तेनोद्दीप्ता चासौ मितिश्च तया इत: स्वात्मा यस्य तत्परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीतस्वात्मकं 'प्रमितिप्राप्तस्वरूपम्' इत्य जाता है वह वाक्य पत्र कहलाता है, इसतरह पत्र शब्द की व्युत्पत्ति है। पदों का स्वरूप एवं उनके वाच्यार्थ को जानने वाले परवादी से भी प्रत्यय प्रकृति आदि के गोपन से पदों का गोपन करना सम्भव होता ही है। उक्त प्रकार से कहे हुए पत्र के अवयव कहीं पर दो ही प्रयुक्त होते हैं, उतने मात्र से साध्य सिद्धि हो जाने से । अब दो अवयव युक्त पत्र वाक्य का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है-स्वान्त भासित भूत्याद्यत्र्यन्तात्मतदुभान्तवाक् । परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीतस्वात्मकत्वतः ॥१॥ इस वाक्य का विश्लेषण-अन्त शब्द से प्रान्त बना इसमें स्वार्थिक अण् आया है जैसे वान प्रस्थ आदि में प्राता है। प्र आदि उपसर्ग के पाठअपेक्षा से "सु" के प्रान्त जो हो वह स्वान्त उत् [उपसर्ग] है, उससे भासित भूति अर्थात् उद्भूति [उत्पाद] वह आदि में जिनके हैं वे स्वान्तभासितभूत्पाद्या तथा वन्ता ये उत्पादव्ययध्रौव्य धर्म कहलाये वे जिनका स्वरूप है और उनको जो व्याप्त करे वह स्वान्तभासितभूत्याद्ययन्तात्मतत् कहलाया। यह साध्य है । उभान्त वचन जिसके है वह उभान्तवाक् अर्थात् विश्व है यह धर्मी है । उस साध्य धर्म से विशिष्ट का निर्देश किया अर्थात् उत्पाद आदि त्रिस्वभाव व्यापी सब पदार्थ हैं [यहां तक प्रतिज्ञा वाक्य का विश्लेषण हुआ] अागे हेतु वाक्य को कहते हैं; परा जिसके अन्त में है वह परान्त है अर्थात् प्र वही द्योतित अर्थात् उपसर्ग, उससे उद्दीप्त जो मिति उसके द्वारा इत मायने प्राप्त है स्वात्मा जिसकी वह परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीतस्वात्मक है अर्थात् प्रमीति [ ज्ञान ] को प्राप्त स्वरूप वाला है उसका भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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