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पत्रविचार:
प्रसिद्धावयवलक्षणं वाक्यं पत्रमित्यवगन्तव्यं तथाभूतस्यैवास्य निर्दोषतोपपत्तेः । न खलु स्वाभिप्रेतार्थासाधकं दुष्टं सुस्पष्टपदात्मकं वा वाक्यं निर्दोषं पत्रं युक्तमतिप्रसङ्गात् । न च क्रियापदादिगूढं काव्यमप्येवं पत्रं प्रसज्यते; प्रसिद्धावयवत्वविशिष्टस्यास्य पत्रत्वाभिधानात् । न हि पदगूढादिकाव्यं प्रमाणप्रसिद्धप्रतिज्ञाद्यवयवविशेषणतया किञ्चित्प्रसिद्धम् तस्य तथा प्रसिद्धौ पत्रव्यपदेशसिद्ध रबाधनात् ।
तदुक्तम्
"प्रसिद्धावयवं वाक्यं स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् ।
साधु गूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलम् ||" [ पत्रप० पृ० १ ]
कथं प्रागुक्तविशेषणविशिष्टं वाक्यं पत्रं नाम, तस्य श्रोत्रसमधिगम्यपदसमुदयविशेषरूपत्वात्,
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लक्षण है उसका तद्विचार करने में चतुर पुरुषों को विचार करना चाहिये । आगे पत्र का लक्षण कहते हैं - अपने को इष्ट ऐसे साधन वाला निर्दोष एवं गूढ पदों के समुदाय स्वरूप, प्रसिद्ध श्रवयव युक्त वाक्य को पत्र कहते हैं, इसतरह के लक्षणों से लक्षित वाक्य ही निर्दोष पत्र कहा जा सकता जो अपने इष्ट अर्थ का साधन नहीं है, अपशब्द वाला है, या गूढ अर्थ युक्त नहीं है ऐसा वाक्य निर्दोष पत्र नहीं कहा जा सकता, अन्यथा काव्य आदि किसी वाक्य को पत्र मानने का प्रतिप्रसंग उपस्थित होगा । पत्र के लक्षण में तीन विशेषण हैं अपने इष्टार्थ का साधक हो, निर्दोष गूढ पद युक्त हो, एवं अनुमान के प्रसिद्ध अवयवों से सहित हो । इनमें से क्रिया पद आदि से गूढ काव्य भी हुआ करता है अतः उसको पत्र मानने का प्रसंग आयेगा ऐसी आशंका नहीं करना क्योंकि अनुमान के प्रसिद्ध अवयवों से सहित होने पर ही पत्रपना संभव है, काव्य में होने वाले क्रिया प्रादि के गूढपद प्रमाण प्रसिद्ध प्रतिज्ञा हेतु आदि अवयवों से विशिष्ट नहीं हुआ करते हैं । यदि किसी काव्य में इसतरह के पद - वाक्य होवे तो वह भी पत्र कहा जा सकता है । पत्र परीक्षा नामाग्रन्थ में पत्र का यही लक्षण कहा हैप्रसिद्धावयवं वाक्यं स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् । साधु गूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलम् ।।१।। अर्थात् प्रसिद्ध अवयव संयुक्त स्वेष्ट अर्थ का प्रसाधक, निर्दोष एवं गूढ पदों से युक्त अबाधित वाक्य को पत्र कहते हैं ।
शंका-उपर्युक्त विशेषों से युक्त वाक्य को पत्र कहना किसप्रकार संगत हो सकता है यह तो कर्ण द्वारा गम्य पदों के समुदायरूप है अर्थात् उच्चारित किये गये
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