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________________ सप्तभंगीविवेचनम् ६७७ व्यत्वस्य, पञ्चमे सत्त्वसहितस्य, षष्ठे पुनरसत्त्वोपेतस्य, सप्तमे क्रमे क्रमवत्तदुभययुक्तस्य सकलजनैः सुप्रतीतत्वात् । ननु चावक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरत्वे वस्तुनि वक्तव्यत्वस्याष्टमस्य धर्मान्तरस्य भावात्कथं सप्तविध एव धर्मः सप्तभङ्गीविषय: स्यात् ? इत्यप्यपेशलम्; सत्त्वादिभिरभिधीयमानतया वक्तव्यत्त्वस्य प्रसिद्धः, सामान्येन वक्तव्यत्वस्यापि विशेषेण वक्तव्य तायामवस्थानात् । भवतु वा वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वयोधर्मयोः प्रसिद्धिः; तथाप्याभ्यां विधिप्रतिषेधकल्पना वषयाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यामिव सप्तभनयन्तरस्य प्रवृत्तेर्न तद्विषयसप्तविधधर्मनियमव्याघातः, यतस्तद्विषयः संशयः सप्तधैव न स्यात् तद्धेतुजि तृतीय भंग में [स्यात् अस्ति नास्ति] क्रम से अर्पित सत्त्व असत्व प्रधानता से प्रतीत होता है, चतुर्थ भङ्ग में [स्यात् प्रवक्तव्य] अवक्तव्यधर्म प्रधानता से प्रतीत होता है, पंचम भङ्ग में [स्यात् अस्ति प्रवक्तव्य] सत्त्व सहित अवक्तव्य मुख्यता से प्रतिभासित होता है, पष्ठ भङ्ग में [ स्यात् नास्ति वक्तव्य ] असत्त्व सहित प्रवक्तव्य मुख्यता से ज्ञात होता है, और अन्तिम सप्तभङ्ग में [रयात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य] क्रम से उभय युक्त प्रवक्तव्य प्रतिभासित होता है । इसप्रकार यह सर्वजन प्रसिद्ध प्रतीति है अर्थात् सप्तभङ्गी के ज्ञाता इन भङ्गों में इसीतरह प्रतीति होना स्वीकार करते हैं । शङ्का-यदि प्रवक्तव्य को वस्तु में पृथक धर्मरूप स्वीकार किया जाता है तो वक्तव्यत्व नामका पाठवां धर्मान्तर भी वस्तु में हो सकता है फिर वस्तु में सप्तभंगी के विषयभूत सात प्रकार के ही धर्म हैं ऐसा किसप्रकार सिद्ध हो सकेगा ? समाधान-यह शंका व्यर्थ की है, जब वस्तु सत्त्व आदि धर्मों द्वारा कहने में आने से वक्तव्य हो रही है तो वक्तव्य की सिद्धि तो हो चुकती है । सामान्य से वक्तव्यपने का भी विशेष से वक्तव्यपना बन जाता है। अथवा दूसरी तरह से वक्तव्य और प्रवक्तव्य दो धर्म वस्तु में अवस्थित हैं ऐसा माने तो भी सप्तभंगी मानने में या वस्तु में सात प्रकार के धर्म मानने में कोई विरोध नहीं पाता, जब वक्तव्य और प्रवक्तव्य नाम के दो पृथक् धर्म मानते हैं तब सत्त्व और असत्त्व के समान इन वक्तव्य और प्रवक्तव्य को क्रम से विधि और प्रतिषेध करके अन्य सप्तभंगी की प्रवृत्ति हो जायगी अतः सप्तभंगी के विषयभूत सात प्रकार के धर्मों का नियम विघटित नहीं होता अर्थात् पाठवां धर्म मानने आदि का प्रसंग नहीं आता । इसप्रकार एक वस्तु में सात प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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