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________________ सप्तभंगीविवेचनम् ६७५ त्वादीनां वस्तुधर्मत्वं प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्यम् । तदभावे क्रमेण सदसत्त्वविकल्पशब्दव्यवहारविरोधात्, सहाऽवक्तव्यत्वोपलक्षितोत्तरधर्मत्रयविकल्पस्य शब्दव्यवहारस्य चासत्त्वप्रसंगात् । न चामी व्यवहारा निविषया एव; वस्तुप्रतिपत्तिप्रवृत्तित्राप्तिनिश्चयात् तथाविध रूपादिव्यवहारवत् । ननु च प्रथम द्वितीयधर्मवत् प्रथमतृतीयादिधर्माणां क्रमेतरापितानां धर्मान्तरत्वसिद्धनं सप्तविधधर्मनियमः सिद्धये त्; इत्यप्यसुन्दरम् ; क्रमापितयोः प्रथमतृतीयधर्मयोः धर्मान्तरत्वेनाऽप्रतीतेः, सत्त्वद्वयस्यासम्भवाद्विवक्षित स्वरूपादिना सत्त्वस्यैकत्वात् । तदन्यस्वरूपादिना सत्त्वस्य द्वितीयस्य सम्भवे विशेषादेशात् तत्प्रतिपक्षभूतासत्त्वस्याप्यपरस्य सम्भवादपरधर्मसप्तकसिद्धिः (द्धे:) सप्तभङ्गय वैसे क्रमार्पित उभयत्व आदि शेष धर्म भी वस्तु धर्म रूप है ऐसा प्रतिपादन हुआ समझना । अर्थात् स्यात् प्रवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य आदि धर्म भी वस्तु में हैं। अस्ति नास्ति का अभाव करे तो क्रम से सत्त्व प्रोर असत्व शब्द का व्यवहार विरुद्ध होगा । तथा युपपत् को अपेक्षा प्रवक्तव्य आदि से उपलक्षित स्यात् प्रवक्तव्य एवं उत्तर के तीन धर्म रूप शब्द व्यवहार भी समाप्त होगा। स्यात् अस्ति नास्ति, स्याद् प्रवक्तव्य आदि व्यवहार निविषय-विषयरहित काल्पनिक भी नहीं कहे जा सकते, क्योंकि इन शब्द व्यवहारों से वस्तु की प्रतिपत्ति [ ज्ञान ] वस्तु की प्रवृत्ति [वस्तु को लेने आदि के लिये प्रवृत्त होना] एवं वस्तु की प्राप्ति होती है। जैसे कि अन्यत्र प्रतिपत्ति प्रवृत्ति आदि का व्यवहार होता है । यदि अन्यत्र शब्दादि से होने वाला व्यवहार भी निविषयी माना जायगा तो सम्पूर्ण प्रत्यक्षादि से होने वाला व्यवहार भी लुप्त होगा और फिर किसी के भी इष्ट तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। ___ शंका-प्रथम [अस्ति] और द्वितीय [ नास्ति ] धर्म के समान प्रथम और तृतीय आदि धर्मों को क्रम तथा अक्रम से अर्पित करने पर अन्य अन्य धर्म भी बन सकते हैं अतः सात ही प्रकार का धर्म है ऐसा नियम असिद्ध है ? समाधान-यह कथन असत् है, क्रम से अर्पित प्रथम और तृतीय धर्म धर्मान्तररूप अर्थात् पृथक् धर्मरूप प्रतीत नहीं होते। एक ही वस्तु में दो सत्त्व धर्म असम्भव है, केवल विवक्षित स्वरूपादि की अपेक्षा एक ही सत्त्वधर्म सम्भव है । अर्थात् विवक्षित एक मनुष्य वस्तु में स्वद्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा एक ही सत्त्व या अस्तित्व है दूसरा सत्त्व नहीं है। यदि उससे अन्य स्वरूपादि की अपेक्षा दूसरा सत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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