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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे किञ्च, पूर्व पिण्डपरित्यागेन तत्तत्र गच्छेत्, अपरित्यागेन वा ? न तावत्परित्यागेन; प्राक्तन पिण्डस्य गोत्वपरित्यक्तस्यागोरूपताप्रसङ्गात् । नाप्यपरित्यागेन; अपरित्यक्तप्राक्तन पिण्डस्यास्थानंशस्य रूपादेरिव गमनासम्भवात् । न ह्यपरित्यक्तपूर्वाधाराणां रूपादीनामाधारान्तरसंक्रांन्तिर्दृष्टा । नापि पिण्डेन सहोत्पादात्; तस्याऽनित्यतानुषङ्गात् । नापि तद्ददेशे सत्त्वात्; पिण्डोत्पत्त ेः प्राक् तत्र निराधारस्यास्यावस्थानाभावात् । भावे वा स्वाश्रयमात्रवृत्तित्वविरोधः । २४ नाप्यंशवत्तया; निरंशत्वप्रतिज्ञानात् । ततो व्यक्त्यन्तरे सामान्यस्याभावानुषङ्गः । परेषां प्रयोग: 'ये यत्र नोत्पन्ना नापि प्रागवस्थायिनो नापि पश्चादन्यतो देशादागतिमन्तस्ते तत्राऽसन्तः यथा दूसरी बात यह है कि सामान्य अन्य गो आदि पिंड में जाता है वह अपने पहले स्थानभूत गो आदि पिंड का त्याग करके ( छोड़ के ) जाता है, अथवा बिना त्याग किये जाता है ? त्याग करके तो जा नहीं सकता, यदि जायगा तो पहला पिंड प्रगोरूप होवेगा, क्योंकि उसमें जो गोत्व सामान्य था वह तो अन्य पिंड में चला गया है ? पूर्व गो पिण्ड को बिना त्यागे अन्य गो पिंड में जाता है ऐसा द्वितीय कथन भी गलत है, जिसने पूर्व पिंड को नहीं छोड़ा वह अन्य जगह जा ही नहीं सकता, क्योंकि वह तो रूपादि के समान निरंश है, पूर्व आधारों को बिना छोड़े रूपादि धर्मों की अन्य ग्रन्य जगह संक्रमण होना नहीं देखा जाता है । गो आदि पिण्ड के साथ गोत्वादि सामान्य उत्पन्न हो जाता है अतः अन्य व्यक्तियों में उसका रहना सिद्ध होता है, ऐसा कहना भी जमता नहीं, इस तरह कहने से तो सामान्य अनित्य स्वभावी सिद्ध होगा । गो आदि व्यक्तियों के स्थान पर सामान्य का सद्भाव रहता है अतः अन्य व्यक्तियों में उसकी वृत्ति बन जाती है ऐसा कहना भी प्रयुक्त है, क्योंकि गो पिण्ड के उत्पत्ति के पहले उस स्थान पर निराधार भूत इस सामान्य का ठहरना असम्भव है । यदि निराधार में भी सामान्य का सद्भाव स्वीकार करेंगे तो सामान्य अपने आश्रय मात्र ही रहता है ऐसा सिद्धांत गलत ठहरता है । अंशवाला होने से अन्य व्यक्तियों में सामान्य की वृत्ति सिद्ध होती है ऐसा कहना भी गलत है, आपने सामान्य को निरंश माना है, इस प्रकार सामान्य व्यक्तियों के अंतराल में प्रभाव रूप ही सिद्ध होता है । नित्य सर्वगत स्वभाव वाले सामान्य को नहीं मानने वाले प्रवादी उक्त सामान्य का निरसन करने के लिये इस प्रकार कहते हैंयोग का अभिमत सामान्य असत् रूप ही है, क्योंकि वह अनुत्पद्यमान आदि स्वभाव Jain Education International For Private & Personal Use. Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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