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________________ ५७२ प्रमेयकमलमार्तण्डे एवं तो प्रमाणतदाभासी दुष्टतयोद्भाविती परिहतापरिहृत दोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च भवतः। . ननु चतुरङ्गवादमुररीकृत्येत्याद्ययुक्तमुक्तम् ; वादस्याविजिगीषुविषयत्वेन चतुरङ्गत्वासम्भवात् । न खलु वादो विजिगीषतोवर्तते तत्त्वाध्य वसायसंरक्षणार्थरहितत्वात् । यस्तु विजिगीषतो सो अत्यन्त निपुण हों, क्योंकि वाद में अनुमानप्रमाण द्वारा ही प्रायः स्वपक्ष को सिद्ध किया जाता है। वादी प्रमाण और प्रमाणाभास को अच्छी तरह जानता हो तो अपने पक्षको सिद्ध करने के लिये सत्य प्रमाण उपस्थित करता है, प्रतिवादी यदि न्याय के क्रम का उल्लंघन नहीं करता और उस प्रमाण के स्वरूप को जानने वाला होता है तो उस सत्य प्रमाण में कोई दूषण नहीं दे पाता, और इसतरह वादी का पक्ष सिद्ध हो जाता है तथा प्रागे भी प्रतिवादी यदि कुछ प्रश्नोत्तर नहीं कर पाता तो वादी की जय भी हो जाती है तथा वादी यदि प्रमाणादि को ठीक से नहीं जानता तो स्वपक्ष को सिद्ध करने के लिये प्रमाणाभास-असत्य प्रमाण उपस्थित करता है, तब प्रतिवादी उसके प्रमाण को सदोष बता देता है, अब यदि वादी उस दोष को दूर कर देता है तो ठीक है अन्यथा उसका पक्ष प्रसिद्ध होकर आगे उसका पराजय भी हो जाता है। कभी ऐसा भी होता है कि वादी सत्य प्रमाण उपस्थित करता है तो भी प्रतिवादी उसका पराजय करने के लिये उस प्रमाण को दूषित ठहराता है, तब वादी उस दोष का यदि परिहार कर पाता है तो ठीक वरना पराभव होने की संभावना है, तथा कभी ऐसा भी होता है कि वादी द्वारा सही प्रमाण युक्त पक्ष उपस्थित किया है तो भी प्रतिवादी अपने मत की अपेक्षा या वचन चातुर्य से उस प्रमाण को सदोष बताता है ऐसे अवसर पर भी वादी यदि उस दोष का परिहार करने में असमर्थ हो जाता है तो भी वादी का पराजय होना संभव है । इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि अपने पक्षके ऊपर, प्रमाण के ऊपर प्रतिवादी द्वारा दिये गये दोषों का निराकरण कर सकना ही विजय का हेतु है। जैन के द्वारा वाद का लक्षण सुनकर यौग अपना मत उपस्थित करता है योग-वाद के चार अंग होते हैं इत्यादि जो अभी जैन ने कहा वह अयुक्त है, वाद में जीतने की इच्छा नहीं होने के कारण सभ्य आदि चार अंगों की वहां संभावना नहीं है । विजय पाने की इच्छा है जिन्हें ऐसे वादी प्रतिवादियों के बीच में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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