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________________ तदाभासस्वरुपविचार: स्वयमसमर्थस्याऽकारकत्वात्पूर्ववत् ॥ ६३ ॥ एतश्च सर्व विषयपरिच्छेदे विस्तारतोभिहितमिति नेहाभिधीयते । नापि द्वितीय : पक्षः; समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥ ६४ ।। समय विशेषात्मक ही रहेगा ऐसा अटल नियम है और यह नियम भी कोई जबरदस्ती स्थापित नहीं किया है किन्तु इसीप्रकार की प्रतीति आने से-प्रतीति के आधार पर ही स्थापित हुअा है। सामान्य विशेषात्मक ही पदार्थ है पृथक् पृथक् दो नहीं हैं ऐसा मानने का कारण यह भी है कि अकेला सामान्य या अकेला विशेष कोई भी कार्य नहीं कर सकता है । हम जैन सत्ताद्वैतवादी आदि परवादियों से प्रश्न करते हैं कि अकेला स्वतन्त्र ऐसा यह सामान्य या विशेष यदि कार्य करता है तो स्वयं समर्थ होकर करता है या असमर्थ होकर करता है ? स्वयं असमर्थ होकर तो कार्य कर नहीं सकते, क्योंकि स्वयमसमर्थस्या कारकत्वात् पूर्ववत् ॥६३।। अर्थ-जो स्वयं असमर्थ है वह कार्य कर नहीं सकता जैसे पहले नहीं करता था, अर्थात् पदार्थ जो भी कार्य करते हैं उसमें वे किसी अन्य की अपेक्षा रखते हैं या नहीं ? यदि रखते हैं तो जब अन्य सहकारी कारण मिला तब पदार्थ ने कार्य को किया ऐसा अर्थ हुअा ? किन्तु ऐसा परवादी मान नहीं सकते क्योंकि उनके यहां प्रत्येक पदार्थ को या सर्वथा परिणामी-परिवर्तनशील माना है या सर्वथा अपरिणमनशील माना है, यदि मान लो कि पदार्थ सर्वथा अपरिणामी है तथा स्वयं असमर्थ है परकी अपेक्षा लेकर कार्य करता है तो ऐसा मानना अशक्य है, क्योंकि जो अपरिणामी है उसको परकी सहायता हो तभी जैसा का तैसा है और परकी सहायता जब नहीं है तभी जैसा का तैसा पूर्ववत् है। इस विषय को विषय परिच्छेद में विस्तारपूर्वक कह दिया है अत: यहां नहीं कहते हैं। दूसरा पक्ष-सामान्यादि अकेला स्वतंत्र पदार्थ स्वयं समर्थ होकर कार्य को करता है ऐसा मानना भी गलत है, क्योंकि समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ।।६४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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