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तदाभासस्वरूपविचारः प्रतिपादितश्चायं प्रतिभास भेदसामग्रीभेदश्चाध्यक्षादीनां प्रपञ्चतस्तव'धेत्यत्रेत्युपरम्यते ।
अथेदानीं विषयाभासप्ररूपणार्थं विषयेत्याद्य पक्रमते
अविशदं परोक्षम्, ऐसा लक्षण सुघटित होता है अतः इनमें कथंचित् अभेद भी है। प्रत्यक्ष प्रमाण में पारमार्थिक प्रत्यक्ष की सामग्री अखिल आवरण कर्मों का नाश होना है, और सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष की सामग्री इन्द्रियां तथा मन है, अंतरंग में आवरण कर्म का क्षयोपशम होना है। परोक्ष ज्ञान में-स्मृति में कारण प्रत्यक्ष प्रमाण तथा तदावरण कर्म का क्षयोपशम है, प्रत्यभिज्ञान में प्रत्यक्ष तथा स्मति एवं सदावरण कर्म का क्षयोपशम इसप्रकार कारण है ऐसे ही तर्क आदि प्रमाणों के कारण अर्थात् सामग्री समझ लेना चाहिये इसतरह विभिन्न सामग्री के होने से प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाणों में एवं इनके प्रभेदों में विभिन्नता पाया करती है । प्रतिभास का भेद भी इनमें दिखायी देता है, प्रत्यक्ष का प्रतिभास विशद-स्पष्ट है और परोक्ष का अविशद-अस्पष्ट है । ऐसे ही इनके सांव्यावहारिक या अनुमानादि में कथंचित् विभिन्न विभिन्न प्रतिभास होते हैं अतः इन ज्ञानोंको भिन्न भिन्न प्रमाणरूप माना है। जैन से अन्य परवादी जो चार्वाक बौद्ध आदि हैं उनके यहां प्रमाण संख्या सही सिद्ध नहीं होती क्योंकि प्रथम तो वे लोग प्रमाण का लक्षण गलत करते हैं दूसरी बात इनके माने गये एक दो आदि प्रमाण द्वारा इन्हीं का इष्ट सिद्धांत सिद्ध नहीं हो पाता, चार्वाक को परलोक का निषेध करना इष्ट है किन्तु वह प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता, ऐसे ही बौद्ध को अनुमान प्रमाण मानना इष्ट है किन्तु अनुमान तभी सिद्ध हो सकता है जब उस अनुमान में स्थित जो साध्य-साधन का अविनाभाव है उसको जानने वाला तर्क ज्ञान स्वीकार किया जाय । यदि चार्वाक आदि कहे कि हम अनुमान को मानकर उनका अन्तर्भाव प्रत्यक्षादि में ही कर लेंगे ? सो बात गलत है क्योंकि जब इस तर्कादि ज्ञान में प्रतिभास विभिन्न हो रहा है तो उसे अवश्य ही पृथक् प्रमाणरूप से स्वीकार करना होगा अन्यथा इन चार्वाक प्रादि का इष्ट कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। इसप्रकार परवादियों को प्रमाण गणना सही नहीं है ऐसा निश्चित होता है । अस्तु ।
अब इस समय विषयाभास का वर्णन करते हैं --
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