SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 598
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ O तदाभासस्वरूपविचार: तस्मादग्निमान् धूमवांश्चायमिति ।। ४६ ।। पूर्वकं निगमनप्रयोगं साध्यप्रतिपत्त्यङ्गां मन्यते, नान्यथा । कुत एतदित्याह स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् ।। ५० ।। स्पष्टतया प्रकृतस्य साध्यस्य प्रतिपत्तेरयोगात् । यो हि यथा गृहीतसङ्क ेतः स तथैव वाक्प्रयोगात्प्रकृतमर्थं प्रतिपद्य ेत नान्यथा लोकवत् । यस्तु सर्वप्रकारेण वाक्प्रयोगे व्युत्पन्नप्रज्ञः स यथा यथा ५५५ अनुमान में पांच अवयव होते हैं, अथवा किसी विषय को पांच अवयव द्वारा उसको समझाया है, सो ऐसे पुरुष के प्रति उपनय और निगमन रहित अनुमान प्रयोग करना अथवा निगमन रहित अनुमान प्रयोग करना ये सब बालप्रयोगाभास है । अब यह बताते हैं कि कम अवयव बताना मात्र बालप्रयोगाभास नहीं है किन्तु और कारण से अर्थात् विपरीत क्रम से कहने के निमित्त से भी बालप्रयोगाभास होता है, जैसे Jain Education International तस्मादग्निमान् धूमवांश्चायं ।। ४६ ।। अर्थ-- अतः अग्निमान है, यह भी धूमवान है, इसप्रकार पहले निगमन प्रौर पीछे उपनय का प्रयोग करना भी बाल प्रयोगाभास है । जिनके मत में पंचावयवी अनुमान माना है अथवा जो अव्युत्पन्न है वह उपनय पूर्वक निगमन का प्रयोग होने को ही साध्य सिद्धि का कारण मानता है, इससे विपरीत निगमनपूर्वक उपनय के प्रयोग को साध्यसिद्धि का कारण नहीं मानता प्रत: विपरीत क्रम से प्रयोग करना बालप्रयोगाभास होता है । इसका भी कारण यह है कि स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्त रयोगात् ।। ५० ।। अर्थ -- निगमन को पहले श्रौर उपनय को पीछे कहने से स्पष्टरूप से अनुमान ज्ञान नहीं हो पाता । प्रकृत जो अग्नि प्रादि साध्य है उसका ज्ञान विपरीत क्रम से कहने के कारण नहीं हो सकता, बात यह है कि जिस पुरुष को जिसप्रकार से संकेत बताया है वह पुरुष उसीप्रकार से वाक्य प्रयोग करे तो प्रकृत अर्थ को समझ सकता है अन्यथा नहीं, जैसे लोक व्यवहार में हम देखते हैं कि जिस बालक आदि को जिस पुस्तक आदि वस्तु में जिस शब्द द्वारा प्रयोग करके बताया हो वह बालकादि उसी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy