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________________ तदाभासस्वरूप विचारः सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ॥ ३४ ॥ एतच्च सर्वज्ञसिद्धिप्रस्तावे प्रपञ्चितमिति नेहोच्यते । पराभ्युपगतश्च पक्षत्रयव्यापकाद्यनं कान्तिकप्रपञ्च एतल्लक्षणलक्षितत्वाविशेषान्नातोऽर्थान्तरम्, सर्वत्र विपक्षस्यैकदेशे सर्वत्र वा विपक्षे वृत्त्या विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तित्वलक्षणसम्भवादित्युदाह्रियते । पक्षत्रयव्यापको यथा-प्रनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् । पक्षे सपक्षे विपक्षे चास्य सर्वत्र प्रवृत्तेः पक्षत्रयव्यापकः । सपक्ष विपक्षैकदेशवृत्तिर्यथा - नित्यः शब्दोऽमूर्त्तत्वात् । श्रमूर्त्तत्वं हि पक्षीकृते शब्दे सर्वत्र अर्थ - जिसका विपक्ष में जाना संशयास्पद हो वह शंकित वृत्ति प्रनैकांतिक है, जैसे- सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह बोलता है । यह वक्तृत्व हेतु शंकित वृत्ति हेत्वाभास क्यों हुआ सो बताते हैं ५४३ सर्वज्ञेन वक्तृत्वाविरोधात् ||३४|| अर्थ - सर्वज्ञ के साथ वक्तृत्व का कोई विरोध नहीं है अर्थात् जो सर्वज्ञ हो वह बोले नहीं ऐसा कोई नियम नहीं, ग्रतः सर्वज्ञ का नास्तिपना वक्तृत्व हेतु द्वारा सिद्ध नहीं होता, वक्तृत्व तो सर्वज्ञ हो चाहे असर्वज्ञ हो दोनों प्रकार के पुरुषों में पाया जाना सम्भव है, इस विषय में सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में [ दूसरे भाग में ] विस्तारपूर्वक कह दिया है, अब यहा नहीं कहते । नैयायिकादि ने इस अनैकान्तिक हेत्वाभास के पक्ष त्रय व्यापक आदि अनेक [ आठ ] भेद किये हैं किंतु उन सबमें यही एक लक्षण" विपक्ष में अविरुद्धरूप से रहना पाया जाता है अतः इस प्रनैकान्तिक से पृथक् सिद्ध नहीं होते, सभी में विपक्ष के एक देश में या पूरे विपक्ष में प्रविरुद्धरूप से रहना संभव है । अब इन्हीं नैयायिकादि के अनैकान्तिक हेत्वाभासों के उदाहरण दिये जाते हैं - पक्ष विपक्ष सपक्ष तीनों में व्याप्त रहने वाला प्रथम प्रनैकान्तिक हेत्वाभास है, जैसे- शब्द अनित्य है, क्योंकि प्रमेय है, यह प्रमेय पक्ष शब्द में, सपक्ष घट आदि में और विपक्ष प्रकाशादि में सर्वत्र ही रहता है, अतः इसे पक्ष त्रय व्यापक कहते हैं । जो पक्ष तथा विपक्ष के एक देश में रहे वह दूसरा प्रनैकान्तिक हेत्वाभास है, जैसे- शब्द नित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है, यह अमूर्तत्व हेतु पक्षीकृत शब्द में पूर्ण - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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