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पक्षैकदेश वृत्तिर्विपक्षव्यापकोऽविद्यमानसपक्षो यथा - नित्येवाङ्मनसे कार्यत्वात् । कार्यत्वं हि पक्षस्यैकदेशे वाचि वर्त्तते न मनसि । विपक्षे चानित्ये घटादौ सर्वत्र प्रवर्त्तते सपक्षे चावृत्तिस्तस्याभावात्सुप्रसिद्धा ।
श्रथानैकान्तिकः कीदृश इत्याह
तदाभासस्वरूपविचार:
विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तिरनेकान्तिकः ॥ ३० ॥
न केवलं पक्ष सपक्षेऽपि तु विपक्षेपीत्यपिशब्दार्थः । एकस्मिन्नन्ते नियतो ह्यं कान्तिकस्तद्विपरीतोऽनैकान्तिकः सव्यभिचार इत्यर्थः । कः पुनरयं व्यभिचारो नाम ? पक्षसपक्षान्यवृत्तित्वम् । यः खलु
सुखादि विपक्ष में नहीं है ग्रतः विपक्षैक देशवृत्ति कहलाया, सपक्ष का सत्व होने से उसमें रहना निषिद्ध है ही ।
जो हेतु पक्ष के एक देश में रहता है और विपक्ष में पूर्ण व्यापक रहता है एवं अविद्यमान सपक्ष वाला है वह चौथा विरुद्ध हेत्वाभास है, जैसे वचन और मन नित्य हैं, क्योंकि ये कार्यरूप हैं, यह कार्यत्व हेतु पक्ष के एक देशभूत वचन में तो रहता है और मन में नहीं रहता, अनित्य घटादि विपक्ष में सर्वत्र रहता है, सपक्ष के प्रभाव होने से उसमें रहना असम्भव है ही । इसप्रकार जिसका सपक्ष नहीं होता ऐसे विरुद्ध हेत्वाभास के चार भेद और पहले जो सपक्ष वाले चार भेद बताये वे सब मिलकर आठ हुए इनका प्रतिपादन नैयायिकादि परवादी करते हैं किन्तु ये सबके सब विशेष लक्षण के प्रभाव में कुछ भी महत्व नहीं रखते हैं ।
नैकान्तिक हेत्वाभास का वर्णन करते हैं
विपक्षेप्यविरुद्ध वृत्तिरनैकान्तिकः ||३०||
अर्थ- जो हेतु विपक्ष में भी प्रविरुद्ध रूपसे रहता हो वह प्रनैकान्तिक हेत्वाभास है । केवल पक्ष सपक्ष में ही नहीं अपितु विपक्ष में भी जो हेतु चला जाय वह अनैकान्तिक [ व्यभिचारी] कहलाता है ऐसा सूत्रस्थ अपि शब्द का अर्थ है । एक धर्म में जो नियत है वह ऐकान्तिक है और जो ऐकान्तिक नहीं वह प्रनैकान्तिक कहा जाता है, "एकस्मिन् अन्ते [ धर्मे ] नियतः स ऐकान्तिक [ इकण प्रत्यय ] न ऐकान्तिकः असौ
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