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________________ तदाभासस्वरूपविचारः ५१७ अवैशद्य प्रत्यक्षं तवाभासं बौद्धस्याकस्माक्ष्मदर्शनाद् वह्निविज्ञानवत् ॥ ६ ।। विशदं प्रत्यक्षमित्युक्त ततोन्यस्मिन्नऽवशद्य सति प्रत्यक्षं तदाभास बौद्धस्याकस्मिकधूमदर्शनाद्वह्नि विज्ञानवत् इत्यप्युक्त प्रपञ्चतः प्रत्यक्षपरिच्छेदे । भाट्ट से एक कदम और भी आगे बढ़ते हैं, ये प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञान और आत्मा ये दोनों भी परोक्ष हैं ज्ञान अपने को और अपने अधिकरणभूत अात्मा इनको कभी भी नहीं जान सकता अतः इन्हें आत्मपरोक्षवादी कहते हैं, इन नैयायिक आदि परवादी का यह अभिप्राय है कि प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और प्रमिति इन प्रमुख चार तत्वों में से प्रमाण या ज्ञान प्रमेय को तो जानता है और प्रमिति [जानना] उसका फल होने से उसे भी ज्ञान जान लेता है किन्तु प्रमाण अप्रमेय होने से स्वयं को कैसे जाने ? नैयायिक ज्ञानको अन्य ज्ञान द्वारा प्रत्यक्ष होना बताते हैं किंतु भाट्ट इसे सर्वथा परोक्ष बताते हैं, प्राभाकर प्रमाण करण और ग्रात्मा कर्ता इन दोनों को ही परोक्ष-सर्वथा परोक्ष स्वीकार करते हैं, इनका मत साक्षात् बाधित होता है प्रात्मा और ज्ञान परोक्ष रहेंगे तो स्वयं को जो अनुभव सुख दुःख होता है पर वस्तु को जानकर हर्ष विषाद होता है वह हो नहीं सकता इत्यादि बहुत प्रकार से इन मतों का निरसन किया गया है । इस प्रकार नैयायिक, भाट्ट और प्राभाकर ये तीनों अस्वसंविदित ज्ञानवादी हैं, इनका स्वीकृत प्रमाण नहीं प्रमाणाभास है। गृहीत नाही ज्ञान प्रमाणाभास इसलिये है कि जिस वस्तु को पहले ग्रहण कर चुके उसको जान लेने से कुछ प्रयोजन नहीं निकलता। निर्विकल्प दर्शन को प्रमाण मानने वाले बौद्ध हैं उनका अभिमत ज्ञान वस्तु का निश्चायक नहीं होने से प्रमाणाभास के कोटि में आ जाता है । संशयादि ज्ञानको सभी मतवाले प्रमाणाभासरूप स्वीकार करते हैं। सन्निकर्ष को प्रमाण वाले वैशेषिक का मत भी बाधित होता है प्रथम तो बात यह है इन्द्रिय और पदार्थ का स्पर्श सन्निकर्ष या छूना कोई प्रमाण या ज्ञान है नहीं वह तो एक तरह का प्रमाण का कारण है, दूसरी बात-हर इन्द्रियां पदार्थ को स्पर्श करके जानती ही नहीं चक्षु और मन तो बिना स्पर्श किये ही जानते हैं इत्यादि इस विषय को पहले बतला चुके हैं। अवैशधे प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद् धूमदर्शनाद् वह्निविज्ञानवत् ।।६।। अर्थ-अविशद ज्ञानको प्रत्यक्ष कहना प्रत्यक्षाभास है, जैसे अचानक धूम के दर्शन से होने वाले अग्नि के ज्ञान को बौद्ध प्रत्यक्ष मानते हैं वह प्रत्यक्षाभास इसी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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