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प्रमेयकमलमार्तण्डे स्याऽप्रकाशकद्रव्यत्वानुषङ्गात् । तत्रास्याः समवायान्नायं दोषः; इत्यप्यसमीचीनम् ; अनन्तरोक्ताऽशेषदोषानुषङ्गात् । तन्नानयोरात्यन्तिको भेदः ।
नाप्यभेदः; तदऽव्यवस्थानुषङ्गात् । न खलु 'सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलम्' इति सर्वथा तादात्म्ये व्यवस्थापयितु शक्यं विरोधात् ।
ननु सर्वथाऽभेदेप्यनयोावृत्तिभेदात्प्रमाणफलव्यवस्था घटते एव, अप्रमाणव्यावृत्त्या हि ज्ञानं
स्वरूप ही है ऐसा समझना चाहिये, यदि प्रकाशन क्रिया को प्रदीप से भिन्न माना जायगा तो प्रदीप अप्रकाशक द्रव्य बनेगा।
शंका-प्रदीप का प्रकाशकत्व यद्यपि पृथक् है तो भी प्रदीप में उसका समवाय होने से कोई दोष नहीं पाता।
समाधान- यह कथन असमीचीन है, इसमें वही पूर्वोक्त दोष पाते हैं, अर्थातप्रदीप का प्रकाशकत्व प्रदीप से भिन्न है तो उसका समवाय प्रदीप में होता है अन्यत्र नहीं होता ऐसा नियम नहीं बनता प्रकाशकत्व का समवाय होने के पहले प्रदीप भी अप्रकाशरूप था और घट पटादि पदार्थ भी अप्रकाश स्वरूप थे फिर प्रदीप में ही प्रकाशकत्व क्यों आया घटादि में क्यों नहीं पाया इत्यादि शंकाओं का समाधान नहीं कर सकने से समवाय पक्ष की बात असत्य होती है। इसप्रकार प्रमाण और प्रमाण के फल में अत्यन्त भेद-सर्वथा भेद मानना सिद्ध नहीं होता।
प्रमाण और उसके फल में सर्वथा-अत्यन्त अभेद भी नहीं है । क्योंकि सर्वथा प्रभेद माने तो इनकी व्यवस्था नहीं होगी कि यह प्रमाण है और यह उसका फल है । कोई बौद्ध मतवाले कहे कि प्रमाण और उसके फल को व्यवस्था बन जायगी, ज्ञान का पदार्थ के प्राकार होना प्रमाण है और उस पदार्थ को जानना प्रमाण का फल है । सो भी बात नहीं है उन दोनों में सर्वथा तादात्म्य अर्थात् अभेद मानने में उक्त व्यवस्था विरुद्ध पड़ती है । तादात्म्य एक ही वस्तुरूप होता उसमें यह प्रमाण है यह उसका फल है इत्यादिरूप व्यवस्था होना शक्य नहीं।
शंका-प्रमाण और फल में सर्वथा अभेद होने पर भी व्यावृत्ति के भेद से प्रमाण फल की व्यवस्था घटित होती है-ज्ञान अप्रमाण की व्यावृत्ति से प्रमाण कहलाता है और अफल की व्यावृत्ति से फल कहलाता है ।
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