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________________ समवायपदार्थविचार: मारणम् ; इत्यन्यत्रापि समानम् । न हि तत्रापि स्वशास्त्रसंस्काराहते 'समवायी' इति ज्ञानमनुभवत्यन्यजनः । न चैतच्छास्त्रमप्रमाणमेतच्च प्रमाणमिति प्रेक्षावतां वक्तु ं युक्तमविशेषात् 1 समवाय इति प्रत्ययेनानैकान्तिकचायं हेतुः; स हि विशेष्यप्रत्ययो न च विशेषणमपेक्षते । श्रथात्र समवायिनो विशेषणम् । नन्वस्तु तेषां विशेषणत्वं यत्र 'समवायिनां समवाय:' इति प्रतिभासते, जैन - ऐसा नहीं कह सकते, इसतरह संकेत को ग्रहण करने मात्र से तत्व व्यवस्था करेंगे तो विज्ञानाद्व ेत, ब्रह्माद्वैत आदि मत भी सत्य कहलायेंगे । कोई अत वादी कह सकता है कि जिसने संकेत को नहीं जाना उस पुरुष को शब्द की योजना से रहित वस्तुमात्र ही प्रतीत होती है, और जब संकेत हो जाता है तब यह विश्व मात्र विज्ञानरूप प्रतीत होता है । वैशेषिक - "विज्ञान मात्र तत्व है" होता है वह उनके अपने शास्त्र के संस्कार के प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता । ४७५ इत्यादि प्रतिभास विज्ञानाद्वैत वादी को कारण से होता है, अतः वह प्रतिभास जैन - यही बात समवाय में घटित होगी, द्रव्य समवायी है, ऐसा जो प्रतिभास होता है वह आपको ही होता है और उसका कारण अपने शास्त्र का संस्कार मात्र है, अतः ऐसा प्रतिभास प्रमाणभूत नहीं हो सकता । आपको समवायी द्रव्य है ऐसी प्रतीति होती है वह स्वशास्त्र के संस्कार के बिना नहीं होती । आप यदि कहें कि हमारे शास्त्र तो प्रमाणभूत हैं अतः उनके संस्कार से होने वाला संकेत पूर्वक समवाय का प्रतिभास सत्य है | तो यह असत् है जब दोनों के शास्त्रों में समानता है तब बुद्धिमान जन ऐसा नहीं कह सकते कि यह शास्त्र प्रमाण है, और यह अप्रमाण है । वैशेषिक द्वारा प्रयुक्त विशेष्य प्रत्ययत्वात् हेतु 'समवाय है' इस प्रत्यय से अनैकान्तिक भी होता है । क्योंकि वह विशेष्य प्रत्यय विशेषण की अपेक्षा नहीं करता । वैशेषिक - " समवाय है" इस प्रतिभास में तो समवायी द्रव्य विशेषण भाव को प्राप्त होते हैं । Jain Education International जैन - यह तो ठीक है कि जहां " समवायी द्रव्यों का समवाय है" ऐसा प्रतिभास होता हो वहां समवायी द्रव्य विशेषणत्व को प्राप्त होते हैं, किन्तु जहां " समवाय है" ऐसा इतना मात्र प्रतिभास हो वहां क्या विशेषण होगा यह विचारिये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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