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________________ समवायपदार्थविचारः ४७१ अस्तु वानाश्रितत्वं समवायस्य, तथाप्यनेकत्वमनिवार्यम्; तथाहि-अनेक: समवायोऽनाश्रितस्वात्परमाणुवत् । नाकाशादिभिर्व्यभिचारः; तेषामपि कथंचिन्नानात्वसाधनात् । ततोऽयुक्तमुक्तम्'इहेति प्रत्यया विशेषाद्विशेषलिङ्गाभावाच्चैकः समवायः' इति । विशेषलिङ्गाभावस्थानन्तरप्रतिपादितलिङ्गसद्भावतोऽसिद्धत्वात् । इहेति प्रत्ययाविशेषोप्यसिद्धः; 'इहात्मनि ज्ञान मिह पटे रूपादिकम्' इतीहेति प्रत्ययस्य विशेषात् । विशेषणानुरागो हि प्रत्ययस्य विशिष्टत्वम् । न चानुगतप्रत्ययप्रतीतित: भी मूर्तद्रव्यों के आश्रयपने से प्रसिद्ध है अतः नित्य द्रव्य को छोड़कर अन्य द्रव्य आश्रित हैं ऐसा कहना भी बाधित होता है, आपने कहा था कि समवाय को आश्रित मानेंगे तो प्राश्रय के नष्ट होने पर वह भी नष्ट होवेगा, सो यह दोष सामान्य में भी होगासामान्य को भी यदि पाश्रित मानते हैं तो स्वाश्रय के नष्ट होने पर सामान्य के नाश का प्रसंग आता है अतः समवाय के समान सामान्य को भी आश्रय रहित मानने का अतिप्रसंग आता है। दैशेषिक के अाग्रह से मान लेवे कि समवाय के आश्रितपना नहीं है, अनाश्रित है, तो भी उसे अनेकरूप तो अवश्य मानना होगा। आगे इसी को स्पष्ट करते हैंसमवाय अनेक हैं, क्योंकि वह अनाश्रित होता है, जैसे परमाणु अनाश्रित होने से अनेक हैं । इस अनाश्रितत्व हेतु का आकाशादि के साथ व्यभिचार भी नहीं पाता, क्योंकि हम जैन ने अाकाश आदि को भी कथंचित्-प्रदेश भेद की अपेक्षा नाना-अनेकरूप सिद्ध किया है। इसप्रकार समवाय में अनेकपना सिद्ध हुआ। समवाय जब अनेक हैं तव आपका पूर्वोक्त कथन गलत ठहरता है कि-इहेदं प्रत्यय की विशेषता के कारण और विशेष लिंग का प्रभाव होने से समवाय एक है, इत्यादि, विशेष लिंग का अभाव है नहीं सद्भाव है, अभी हमने बताया था कि नित्यरूप समवाय है "कदाचित् स्वभावरूप समवाय है' इत्यादि प्रतीतिरूप उस समवाय का विशेष लिंग हुअा ही करता है, अतः विशेष लिंग का अभाव असिद्ध है । "इह" इसप्रकार का प्रत्यय सर्वत्र अविशेष [समान] ही है ऐसा कहा वह भी गलत है, "इह अात्मनि ज्ञानं, पटे रूपादिकं" यहां आत्मा में ज्ञान है, यहां वस्त्र में रूपादिक है, इत्यादि इह प्रत्यय विशेष प्रतीतिरूप ही है। भिन्न भिन्न विशेषण युक्त होना ही प्रतीति का विशिष्टपना कहलाता है। अनुगतप्रत्यय की प्रतीति होने से समवाय में एकत्व है ऐसा भी सिद्ध नहीं होता। गोत्व, घटत्व इत्यादि सामान्यों में और द्रव्यादि छहों पदार्थों में अनुगत के एकत्व का अभाव होने पर अनुगत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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