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________________ ४५६ समवायपदार्थविचारः अथोच्यते-न संयोगः समवायो वा साध्यते किन्तु सम्बन्धमात्रम्, तत्सिद्धी च परिशेषात् समवायः सिध्यतीति ; तदप्युक्तिमात्रम् ; परिशेषन्यायेन समवायस्य सिद्धरसंभवात्, तस्यानेकदोषदुष्टत्वेन प्रतिपादितत्वात् । यदि हि संबन्धान्तरमनेकदोषदुष्ट समवायस्तु निर्दोष। स्यात्, तदासी तन्न्यायात् सिध्येत् । न चैवमित्युक्तम् । कश्चायं परिशेषो नाम ? प्रसक्तप्रतिषेधे विशि ( धे शि )ष्यमाणसंप्रत्ययहेतुः स इति चेत्; स किं प्रमाणम्, अप्रमाणं वा? न तावदप्रमाणमभिप्रेतसिद्धौ समर्थम् ; अतिप्रसङ्गात् । प्रमारणं सम्बन्ध का कार्य है, क्योंकि यह अबाध्यमान इह प्रत्यय स्वरूप है, जैसे “यहां कुण्डा में दही है" इत्यादि इह प्रत्यय अबाध्यमान है, इसप्रकार पहले अनुमान प्रयुक्त हुआ था, उसमें "कुण्डा में दही है" ऐसा दृष्टांत दिया है वह साध्य जो समवाय सम्बन्ध है उससे रहित है, क्योंकि कुण्डा और दही में समवाय सम्बन्ध नहीं होता, इसतरह दृष्टांत साध्य रहित होने के कारण अनुमान दूषित होता है । .. वैशेषिक-"इह तन्तुषु पट:' इत्यादि अनुमान द्वारा न संयोग सिद्ध करते हैं और न समवाय ही, किन्तु सम्बन्धमात्र सिद्ध करते हैं, जब इससे सम्बन्धमात्र सिद्ध होगा तब परिशेष से [तन्तु और वस्त्र का सम्बन्ध संयोगादि रूप नहीं है अत: समवाय रूप ही है । इत्यादि परिशेष अनुमान से] समवाय सिद्ध करते हैं ? जैन-यह भी कहना मात्र है, परिशेष न्याय से समवाय की सिद्धि होना असम्भव है, आपके समवाय पदार्थ के मानने में अनेक दोष आते हैं वह किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है ऐसा बता आये हैं। तथा यदि तन्तु आदि में अन्य संबंध मानने में अनेक दोष आते हों और समवाय संबंध मानने में निर्दोषता हो तब तो परिशेष न्याय से उनमें समवाय सिद्ध होता, किन्तु उलटे समवाय मानने में ही अनेक दोष पाते हैं। तथा परिशेष किसे कहते हैं जिसका प्रसंग प्राप्त था ऐसे संयोगादिका प्रतिषेध होने पर अवशेष जो समवाय है उसके प्रतीति का कारण परिशेष कहलाता है ऐसा परिशेष स्वरूप या लक्षण करते हैं तो वह परिशेष आपको प्रमाणभूत है कि अप्रमाणभूत है ? अप्रमाण है ऐसा कहो तो वह आपके इष्ट ऐसे समवाय को सिद्ध करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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