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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे चारात् । तथाहि-नियमेनायुतसिद्धसम्बन्धत्वमाधाराधेयभूतसम्बन्धत्वं च 'प्राकाशे वाच्ये वाचकस्तच्छब्दः' इति वाच्यवाचकभावे 'मात्मनि विषयभूते महमिति ज्ञानं विषयि' इति विषयविषयिभावे सिद्धि का जहां निषेध हो वह अयुतसिद्धि है उनमें समवाय सम्बन्ध होता ऐसा कहना प्रन्योन्याश्रय दोष युक्त भी है, क्योंकि युतसिद्धत्व प्रसिद्ध हुए बिना समवाय की प्रसिद्धि नहीं हो पाती और समवाय के प्रसिद्ध हुए बिना युतसिद्धत्व प्रसिद्ध के कोटि में ही रह जाता है । इस पर वैशेषिक ने कहा कि पृथगाश्रयवृत्तित्वादि तो युत सिद्धि के लक्षण हैं, और लक्षण का कार्य इतना ही कि उस लक्ष्यभूत वस्तु का अन्य से भेद स्थापित कर देवे, लक्षण का कार्य यह नहीं कि उस वस्तु का अस्तित्व स्थापित करे, अर्थात जो पदार्थ अपने कारण कलाप से निर्मित है पहले ही मौजूद है उसका लक्षण पहिचान करा देता है कि अमुक पदार्थ इस तरह का है, जैसे गाय का लक्षण सास्नादिमान है, जल का लक्षण द्रव्यत्वादि है, यह लक्षण वस्तु का ज्ञापक है-जतलाने वाला है न कि कारक हैबनाने वाला है । अतः हमने युतसिद्धि आदि का जो लक्षण कहा है उसमें इतरेतराश्रय दोष शक्य नहीं, क्योंकि युतसिद्धि का लक्षण युतसिद्धिभूत वस्तु को निर्माण तो कराता नहीं । सिद्धि या सद्भाव तो पहले से है लक्षण तो मात्र चिह्न या अन्य वस्तु से पृथक् करना है। तब जैनाचार्य ने कहा कि ठोक है लक्षण का कार्य तो वस्तु का ज्ञापक बनना है किन्तु ऐसा मानने पर भी अन्योन्याश्रय दोष से प्रापका छुटकारा नहीं होता, युतसिद्धि जब तक अज्ञात है तब तक समवाय को हम पहिचान नहीं सकते और समवाय को जब तक नहीं जाना तब तक युतसिद्धि का निर्णय नहीं होता, इस तरह यतसिद्धि और समवाय ये दोनों ही अज्ञात रह जाते हैं । अर्थात् एक कोई वस्तु और उसकी प्रतिपक्षीभूत अन्य वस्तु है, सो उस एक वस्तु को जाने बिना उसके प्रतिपक्षीभूत अन्य वस्तु को कैसे जाने ? इस तरह समवायनामा पदार्थ सिद्ध नहीं हो पाता । ___ दूसरी बात यह है कि "अयुतसिद्धाना माधाराधेयभूतानां" इत्यादि समवाय का लक्षण किया है उसमें व्यभिचार दोष होने से समवाय पदार्थ सिद्ध नहीं होता आगे इसी को स्पष्ट करते हैं जिसमें नियम से अयुतसिद्धत्व प्रौर प्राधार-आधेयत्व हो उसमें समवाय सम्बन्ध होता है ऐसा प्रापका कहना है, किंतु यह कथन व्यभिचरित होता हैप्राकाश और उसका वाचक शब्द इन वाच्य-वाचकभूत पदार्थों में अयुतसिद्धत्व और आधाराधेयत्व मौजूद है [क्योंकि वैशेषिक मत में शब्द को आकाश का गुण माना है] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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