________________
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
साध्यते येन दृष्टान्तः साध्यविकलो हेतुश्च विरुद्धः स्यात् । नापि संयोगपूर्वकत्वं येनाभ्युपगम विरोधः स्यात् । किं तर्हि ? सम्बन्धमात्रपूर्वकत्वम् । तस्मिंश्च सिद्धे परिशेषात्समवाय एव तज्जनको भविष्यति ।
त (य) च्चेदम् -' विवादास्पदमिदमिहेति ज्ञानं न समवायपूर्वकमबाधिते ज्ञानत्वात् इह कुण्डे दधोतिज्ञानवत्' इति विशेषे (ष) विरुद्धानुमानम् ; तत्सकलानुमानोच्छेदकत्वादनुमानवादिना न प्रयोक्तव्यम् ।
४४०
कि समवाय पूर्वकपना सिद्ध किया जा रहा, जिससे कि कोई परवादी हमारे अनुमान में स्थित दृष्टांत को साध्यविकल कहे या हेतु को विरुद्ध बतलावे । कहने का अभिप्राय यह है कि "यहां पर तन्तुओं में वस्त्र है इत्यादिरूप जो इहेदं प्रत्यय होता है वह संबंध का कार्य है - संबंध के कारण से होता है, क्योंकि यह अबाधित इहेदं प्रत्यय है, जैसे कि "इस कुण्डे में दही है" इत्यादि प्रत्यय अबाध्यमान हुआ करते हैं" इस अनुमान द्वारा हम वैशेषिक सामान्य से संबंध को सिद्ध कर रहे हैं न कि विशेष संबंधरूप समवाय को सिद्ध कर रहे, तथा इस अनुमान द्वारा संयोगनामा संबंध भी सिद्ध नहीं किया जाता, जिससे कि हमारी मान्य बात में बाधा श्रावे । अर्थात् " इह तन्तुषु पटः" इत्यादि अनुमान द्वारा संयोग संबंध को सिद्ध नहीं करते, क्योंकि इसतरह सिद्ध करने में तो तन्तु और वस्त्र में संयोग सम्बन्ध मानना पड़ेगा, और ऐसा मानना हम वैशेषिक के विरुद्ध पड़ेगा, अतः इस अनुमान प्रमाण से संयोग संबंध को सिद्ध नहीं करना है किंतु संबंध मात्र को सिद्ध करना है, जब सामान्य संबंध सिद्ध होवेगा तो समवाय अपने श्राप सिद्ध होवेगा ।
परिशेष न्याय से
यहां कोई जैनादि परवादी कहे कि " इह तन्तुषु पटः" इत्यादि अनुमान प्रमाण तो विशेष विरुद्ध अनुमान कहलाता है, “विवाद में स्थित इह प्रत्ययरूप जो ज्ञान है वह समवायपूर्वक नहीं होता [ अपितु संयोगपूर्वक होता है ] क्योंकि अबाधित इह प्रत्ययस्वरूप है, जैसे " इस कुण्डे में दही है" इत्यादि इह प्रत्यय बाधित होने से समवायपूर्वक नहीं होता, इस अनुमान द्वारा हमारे सामान्य से सम्बन्धमात्र को सिद्ध करने वाले अनुमान में बाधा देवे तो ठीक नहीं क्योंकि ऐसा कहने से जगत् के सकल प्रसिद्ध अनुमान भी बाधित होकर समाप्त हो जायेंगे, अभिप्राय यह है कि सामान्यरूप से किसी पदार्थ को सिद्ध करने वाले अनुमान में विशेष की अपेक्षा लगाकर उसे बाधित करना अशक्य है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org