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________________ ४०८ प्रमेयकमलमार्तण्डे 'विप्रकृष्टं परं संनिकृष्टमपरम्' इति चानयोरेकार्थत्वान्न भेदं पश्यामः । ततश्चायुक्तमुक्तम्-'विप्रकृष्टसनिकृष्टबुद्धिभ्यां परत्वापरत्वयोरुत्पत्तिः' इति । न हि घटबुद्धिमपेक्ष्य कुम्भ उत्पद्यते इति युक्तम् । नापि पर्यायशब्दभेदादर्थो भिद्यते इति । किञ्च, सामान्येषु महापरिमाणाल्पपरिमाणगुणेषु च महदल्पाधारत्वबुध्यपेक्षयोः परत्वापरत्वयोरुत्पत्ति: कल्प्यतामविशेषात् । ___ किञ्च, परत्वापरत्वयोर्गुणत्वमभ्युपगच्छता मध्यत्वं च गुणोभ्युपगन्तव्यः; कालदिक्कृतमध्यव्यवहारस्याप्यत्र समानत्वात् । में तथा अपर और सन्निकृष्ट में एक अर्थ होने से कुछ भी अंतर नहीं है। अतः आप के यहां प्रयुक्त कहा है कि-विप्रकृष्ट बुद्धि द्वारा परत्व की उत्पत्ति होती है और सन्निकृष्ट बुद्धि द्वारा अपरत्व की उत्पत्ति होती है । बुद्धि द्वारा भी पदार्थ उत्पन्न होता है क्या ? घट बुद्धि की अपेक्षा लेकर कुंभ उत्पन्न होता है ऐसा कहना तो सर्वथा अयुक्त है। तथा यह भी बात है कि पर्यायवाची नाम पृथक् होने से अर्थ में भेद नहीं होता है । कहने का अभिप्राय यही है कि विप्रकृष्ट और पर ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं अर्थ दोनों का एक ही है अतः विप्रकृष्ट बुद्धि से परत्व उत्पन्न होता है ऐसा कहना कपोल कल्पित ही ठहरता है । दूसरी बात यह है कि गोत्व, द्रव्यत्व सत्व आदि सामान्यों में एवं महापरिमाण, अल्प परिमाण गुणों में महान और अल्पपने का आधार स्वरूप बुद्धि की अपेक्षा वाले परत्व-अपरत्व की उत्पत्ति होती है ऐसा दैशेषिक को मानना चाहिये । अर्थात् सामान्यादि में भी परत्व अपरत्व को स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि सामान्यादि में भी अपेक्षा बुद्धि [परत्वापरत्वकी] हुआ ही करती है, परसामान्य, अपरसामान्य ऐसा सामान्य में व्यवहार होता ही है तथा महानपरिमाण में "यह पर-बड़ा है" एवं अल्प परिमाण में "यह अपर [ छोटा ] है" ऐसा व्यवहार होता है अतः इनमें भो परत्वापरत्व गुणों को मानने का प्रसंग पाता है, किंतु वैशेषिक ने इनमें परत्वादिका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है । तथा जब आपने परत्व और अपरत्व को गुण माना तो मध्यत्व नामका गुण भी मानना चाहिये । क्योंकि काल और दिशा के निमित्त से मध्यपने का व्यवहार भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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