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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे ४०६ निवर्तक विभागजनिकापि न भवति यथांगुलिक्रियेति । यदि भिद्यमानवंशाद्यवयविद्रव्यस्यावयवक्रिया श्राकाशादिदेशेभ्यो विभागं कुर्यात् तर्हि वंशादिद्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागोत्पादक मेवास्या न स्यादं गुल्याद्यवयविद्रव्य क्रियावत् । ततोऽवयविद्रव्यस्याकाशादिदेश विभागोत्पादको विभागोऽभ्युपगन्तव्यः; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; श्रवश्यं विभागोत्पादकत्वस्यासिद्धत्वात् । क्रियात एव संयोग निवृत्तेरुक्तत्वात् । अथ 'श्रवयविनस्त स्त्रियाऽऽकाशादिदेशसंयोगं न निवर्त्तयति द्रव्यारम्भकसंयोगनिवर्त्तकत्वात् ' इतीदमत्र विवक्षितम् ; तथाप्यसाधारणो हेतुः; सपक्षेप्याकाशादिदेश संयोगानिवर्त्तके रूपादौ वृत्तेर आकाशादि के देशों से विभाग को नहीं करती है, क्योंकि यह क्रिया बांस आदि द्रव्य के आरंभक जो परमाणु हैं उनके संयोगक विरोधी जो विभाग है उसको उत्पन्न करती है किन्तु जो क्रिया प्रकाशादि देश के विभाग को करने वाली है वह संयोग विशेष का निवर्त्तक विभाग की भी जनिका नहीं होती जैसे अंगुली की क्रिया विभाग को नहीं करती है । यदि भेद को प्राप्त हो रहे बांस आदि श्रवयवी द्रव्य के अवयवों की क्रिया श्राकाशादि के प्रदेशों से विभाग को करे तो वह बांस के प्रारंभक परमाणुत्रों के संयोग के विरोधी विभाग की उत्पादिका नहीं होती, जैसे अंगुली आदि अवयवी द्रव्य की क्रिया विभाग की उत्पादिका नहीं है । इसलिये जैन को अवयवी द्रव्य का आकाशादि देश के विभाग को उत्पन्न करने वाला विभाग अवश्य स्वीकार करना चाहिये ? जैन - यह कथन प्रयुक्त है, विभाग के उत्पादकपना प्रसिद्ध है, क्रिया से ही संयोग की निवृत्तिरूप विभाग होता है ऐसा हमने सिद्ध कर दिया है । वैशेषिक - अवयवी के अवयव की क्रिया प्रकाशादि के देश के संयोग की निवर्त्तक नहीं है, क्योंकि वह द्रव्य के प्रारंभक [ परमाणुत्रों] के संयोग की निवर्त्तक है ऐसी उपर्युक्त कथन में विवक्षा थी ? जैन —— ऐसा कहने पर भी हेतु असाधारण अनैकान्तिक होता है, जो हेतु सपक्ष विपक्ष दोनों से व्यावृत्त हो वह असाधारण अनैकान्तिक कहलाता है, यहां आपके अनुमान में विवक्षित अवयव को क्रिया तो पक्ष है, श्राकाशादि के देश [ प्रवयव ] सपक्ष है, तथा अवयवी विपक्ष है सो " द्रव्यारंभक संयोग विरोधिविभागोत्पादकत्वात्" हेतु इन सपक्ष विपक्षों से व्यावृत्त है, अर्थात् सपक्षभूत आकाश के देश संयोग अनिवर्त्तक रूपादि में इस हेतु का प्रभाव है । अवयव के संयोग से श्रवयवी का संयोग अन्य है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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