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________________ गुणपदार्थवादः. ३६३ नन्वेवं सर्वत्र 'दु त्रीणि' इत्यादिप्रतिभासप्रसङ्गात् प्रतिभासप्रविभागो न स्यादऽनेकत्वस्याविशिष्टत्वात् ; तन्न; अपेक्षाबुद्धिविशेषवत्तसिद्धेरप्रतिबन्धात् । यथैव ह्यनेकविषयत्वाविशेषेपि काचिदपेक्षाबुद्धिः द्वित्वस्योत्पादिका काचित्रित्वस्य । न ह्यपेक्षाबुद्धे : पूर्वं द्वित्वादिगुणोस्ति; अनवस्थाप्रसंगात् अपेक्षाबुद्धिजनितस्य वा द्वित्वादेरानर्थक्यानुषङ्गात् । तथा द्वित्वादिप्रत्ययविभागोपि भविष्यति । यत एव चाभिन्नभिन्नत्वलक्षणाद्विशेषादपेक्षाबुद्धिविशेषस्तत एवैकत्वादिव्यवहारभेदोपि भविष्यति इत्यलमन्तर्गडुनैकत्वादिगुणेन । वैशेषिक स्वयं मात्र द्रव्य की गणना के लिये संख्या गुण को कारणरूप स्वीकार करते हैं गणों की गणना करने के लिये कोई कारण नहीं मानते जैसे गुणों की गणना या संख्या स्वयं हो जाती है अथवा गुणों में एकत्व द्वित्वादिका ज्ञान बिना संख्या गुण के स्वयं होता है वैसे द्रव्यों में स्वयं होता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। वैशेषिक-इसतरह स्वयं ही द्वित्वादि की निष्पत्ति होना मानेंगे या एकत्व, द्वित्वादि संख्या को पर्यायरूप मानेंगे तो दो हैं, तीन हैं इत्यादि प्रतिभास सर्वत्र समान होगा क्योंकि दो हो तो भी अनेक हैं और चार पांच आदि भी अनेक हैं फिर प्रतिभास का विभाजन नहीं हो सकेगा ? जैन-यह कथन ठीक नहीं, सर्वत्र समान प्रतिभास नहीं होगा, एक द्वित्व आदि संख्या का भिन्न भिन्न प्रतिभास जो होता है वह अपेक्षा बुद्धि विशेष के समान सिद्ध होता है, अर्थात् सर्वत्र अनेकत्व समानरूप से होते हुए भी कोई अपेक्षा बुद्धि द्वित्व की उत्पादक होती है, कोई अपेक्षा बुद्धि त्रित्व-तीनपने की उत्पादक होती है। इस अपेक्षा बुद्धि के पहले द्वित्वादि गुण होता है ऐसा भी नहीं कह सकते, यदि ऐसा मानेंगे तो अनवस्था आती है । अथवा अपेक्षा बुद्धि से जनित होने से द्वित्वादिक मानना व्यर्थ सिद्ध होता है। तथा द्वित्व आदि के प्रतिभास का विभाग भी सम्भव है । अर्थात् जिस कारण अभिन्नत्व और भिन्नत्वरूप विशेष से अपेक्षा बुद्धि का विशेष सम्भव है उसी कारण से एकत्व प्रादि रूप व्यवहार भेद भी होवेगा, अंतर्गडुसदृश [ भीतरी फोड़े के समान ] एकत्वादि संख्या गुण की कल्पना से बस हो । यदि संख्या गण को न मानकर केवल वस्तुओं के भिन्नत्व अभिन्नत्वरूप विशेष से द्वित्वादिका प्रतिभास स्वीकार करते हैं तो गुणों में भी एकत्वादिका व्यवहार सुगम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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