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________________ ३४४ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रदेशस्थमेव वा ? प्रथमपक्षे स्वयमेवादृष्टं तं प्रत्युपसर्पति, अदृष्टान्तराद्वा ? स्वयमेवारय तं प्रत्युपसर्पणे द्वीपान्तरत्तिद्रव्याणामपि तथैव तत् इत्यदृष्टपरिकल्पनमनर्थकम् । 'यद्दे वदत्त प्रत्युपसर्पति तद्देवदत्तगृणाकृष्टं तं प्रत्युपसर्पणात्' इति हेतुश्चानैकान्तिकः स्यात् । वायुवच्चादृष्टस्य सक्रियत्वम् गुणत्वं बाधेत । शब्दवच्चापरापरस्योत्पत्ती अपरमदृष्टं निमित्त कारणं वाच्यम्, तत्राप्यपरमित्यनवस्था । अन्यथा शब्देऽप्यदृष्टस्य निमित्तत्वकल्पना न स्यात् । प्रदृष्टान्तरात्तस्य तं प्रत्युपसर्पणे तदप्यदृष्टान्तरं तं प्रत्युपसर्पत्यदृष्टान्तरात्तदपि तदन्तरादिति तदवस्थमनवस्थानम् । देवदत्त के प्रति आता हुआ मणि मुक्ता आदि को उसके प्रति आकर्षित करने में कारण बनता है, याकि द्वीपांतर में स्थित जो देवदत्त के प्रात्मप्रदेश हैं उनमें स्वयं तो स्थित रहता है और केवल मणि आदि को देवदत्त के पास पहुंचाने में कारण बनता है ? प्रथम पक्ष कहो तो उक्त अदृष्ट देवदत्त के प्रति-स्वयं आता है अथवा अन्य किसी अदृष्ट के निमित्त से आता है ? यदि स्वयमेव आ जाता है तो द्वीपांतर के मणि मुक्ता अादि भी स्वयं ही देवदत्त के पास आ जायेंगे। फिर तो अदृष्ट की कल्पना करना व्यर्थ है और अदृष्ट की कल्पना व्यर्थ होने से जो देवदत्त के पास पाता है वह देवदत्त के गूण से आकृष्ट है क्योंकि उसके प्रति गमन कर आता है, ऐसा हेतु अनेकान्तिक होता है । तथा वायु नामा पदार्थ द्रव्य है अतः वह क्रियाशील हो सकता है, किन्तु आपके मतानुसार अदृष्ट द्रव्य नहीं. गुण है अतः उसको सक्रिय कहना बाधित होता है । वैशेषिक यदि शब्द के समान अदृष्ट को मानेंगे अर्थात् जिस तरह शब्द से अपर अपर शब्द की उत्पत्ति होती जाती है और अंतिम शब्द श्रोता के कर्ण तक पहुंच जाता है, उसो तरह द्वीपांतर का जो अदृष्ट है उससे अपर अपर अदृष्ट की उत्पत्ति होती जाती है और अंतिम अदृष्ट देवदत्त तक पहुंच जाता है ऐसा माने तो अदृष्ट से अदृष्ट की उत्पत्ति होने में निमित्त कारण बताना होगा। यदि इसतरह की उत्पत्ति में अन्य अदष्ट निमित्त होता है तो अनवस्था पाती है। अदृष्ट से अदृष्ट उत्पन्न होने में अन्य अदृष्टादि निमित्त की आवश्यकता नहीं होने से अनवस्था नहीं पायेगी ऐसा कहो तो शब्द से शब्द उत्पन्न होने में अदृष्ट रूप निमित्त की आवश्यकता भी नहीं माननी होगी। [किंतु वैशेषिक ने वहां उक्त निमित्त की कल्पना की है ] अदृष्टान्तर से उक्त अदष्ट देवदत्त के प्रति उत्सर्पित होता है ऐसा माने तो अदृष्टांत र भी किसी अन्य अदृष्ट को प्रेरित करेगा और वह तीसरा भी किसी अन्य को इसतरह अनवस्था दूषण तदवस्थ रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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