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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
अनुमानविरोधाच्चास्य तद्धर्मोपेतत्वायोगः; तथाहि -नारमा परममहापरिमाणाधिकरणो द्रव्यान्तराऽसाधारणसामान्यवत्त्वे सत्यनेकत्वाद्घटादिवत् । 'अनेकत्वात्' इत्युच्यमाने हि सामान्येनानेकान्तः, तत्परिहारार्थं 'सामान्यवत्त्वे सति' इति विशेषणम् । तथाकाशादिना व्यभिचारः, तत्परिहारार्थं
विशेषार्थ - प्रात्मा सर्वगत है ऐसा मानेंगे तो सभी प्रात्मानों के शरीरों के साथ हमारा सम्बन्ध रहेगा, और जब सभी के शरीरों में हमारे आत्मा का अस्तित्व है तो सभी के सुख दुःख हमें भी उसीतरह से अनुभव में आने चाहिए जिसतरह से अपने स्वयं के अनुभव में आया करते हैं, किसी एक व्यक्ति के भोजन करने से हमें तृप्ति हो जानी चाहिये, देवदत्त ने जल पिया है तो उसी से यज्ञदत्त की प्यास बुझनी चाहिए, जिनदत्त ने पाठ कंठस्थ किया है अतः गुरुदत्त को वही पाठ बिना याद किये कंठस्थ हो जाना चाहिए ? क्योंकि इन यज्ञदत्तादि के शरीरों में भी देवदत्तादि श्रात्मा मौजूद है । किन्तु ऐसा कुछ भी होता नहीं, केवल अपने शरीर मात्र में ही सुख दुःखादि का अनुभव प्राता है अतः निश्चित होता है कि आत्मा सर्वत्र व्यापक नहीं है । आत्मा को सर्वगत मानने से सभी को सर्वज्ञपने का भी प्रसंग आता है, जब हमारी आत्मा सर्वत्र है तो सब जगह के पदार्थों का ज्ञान या अनुभव होवेगा ही ? अतः श्रात्मा को सर्वगत मानना गलत है ।
आत्मा को सर्वगत मानने में अनुमान प्रमाण से भी विरोध प्राता है मतः उसको सर्वगत एवं सर्वथा नित्य एक रूप मानना अशक्य है ।
अनुमान प्रमाण द्वारा इसी बात को बतलाते हैं— श्रात्मा परम महा परिमाण का अधिकरण नहीं है, क्योंकि वह द्रव्यांतर से असाधारण सामान्य वाला है एवं अनेक है, जैसे घट पट आदि पदार्थ हैं । इसमें केवल अनेकत्वात् हेतु देते तो सामान्य के [ गोत्वादि के ] साथ व्यभिचार होता अतः उसका परिहार करने के लिये “सामान्यवान् ” विशेषण दिया है अर्थात् श्रात्मा सामान्य नहीं है किन्तु सामान्यवान होकर अनेक है अतः व्यापक नहीं है । "सामान्यवत्वे सति अनेकत्वात् " इतना ही विशेषणवाला हेतु देते तो आकाशादि के साथ व्यभिचार आता, अर्थात् जो सामान्यवान होकर अनेक है वह महा परिमाण नहीं है, ऐसा कहेंगे तो आकाशादि द्रव्य से व्यभिचार आता, श्राकाश सामान्यवान होकर भी महा परिमाण स्वरूप है, अतः इस दोष को दूर करने के लिये
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