SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिग्द्र व्यवादः ३२५ स्वरूपतस्तत्प्रत्ययप्रसिद्धौ तेनैवानेकान्तात् कुतो दिग्द्रव्य सिद्धिस्तत्प्रत्ययपरावृत्त्यभावश्चानुषज्यः । सवितुरुं प्रदक्षिणमावर्तमानस्येत्यादिन्यायेन दिग्द्रव्ये प्राच्यादिव्यवहारोपपत्ती तत्प्रदेशपंक्तिष्वऽप्यत एव तद्वयवहारोपपत्त रलं दिग्द्रव्यकल्पनया, देशद्रव्यस्यापि कल्पनाप्रसंगात्-'अयमतः पूर्वोदेश:' इत्यादिप्रत्ययस्य देशद्रव्यमन्तरेणानुपपत्त: । पृथिव्यादिरेव देशद्रव्यम् ; इत्यसत्; तत्र पृथिव्यादिप्रत्ययोत्पत्त: । पूर्वादिदिक्कृतः पृथिव्यादिषु पूर्वदेशादिप्रत्ययश्चेत् ; तहि पूर्वाद्याकाशकृतस्तत्रैव पूर्वादिदिक्प्रत्ययोस्त्वऽलं दिक्कल्पनाप्रयासेन । इसतरह माना जाय तो अन्योन्याश्रय होने से दोनों का ही प्रभाव होने का प्रसंग प्राता है । वैशेषिक कहे कि अन्योन्याश्रय दोष नहीं होगा, दिशा भेदों में पूर्वादिप्रत्यय तो स्वरूप से स्वतः ही होते है, तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसतरह पूर्वोक्त "तत्प्रत्यय विशिष्टत्वात्" हेतु अनेकान्तिक होता है । इसतरह तत् प्रत्यय विशिष्टत्वात हेतु जब स्वयं प्रसिद्ध है तब किससे दिग्द्रव्य की सिद्धि होवेगी ? अर्थात् नहीं होती है। तथा दिशामों में पूर्वादिप्रत्यय स्वरूप से ही होते हैं ऐसा माने तो उनमें जो परावृत्ति होती है वह नहीं होगी अर्थात् पूर्व दिशा ही किसी देश की अपेक्षा पश्चिम कहलाने लगती है पश्चिम दिशा भी अपेक्षा से पूर्व कही जाती है इत्यादि दिशापरावृत्ति का होना असंभव होगा। आपने कहा कि-सूर्य का मेरु की प्रदक्षिणा रूप से जब भ्रमण होता है तब दिशा नामा द्रव्य में "यह पूर्व है" इत्यादि व्यवहार बन जाता है । सो इस पर हम जैन का कहना है कि आकाश प्रदेश पंक्तियों में इसी ही कारण से पूर्वादिका व्यवहार होता है इसलिए दिशाद्रव्य की कल्पना करना व्यर्थ है । तथा दिशाद्रव्य को पृथक् माने तो देश नामा द्रव्य भी मानना होगा क्योंकि “यह यहां से पूर्व देश है"' इत्यादि प्रत्यय देशद्रव्य को माने बिना बनता नहीं है। पृथिवी आदि को ही देशद्रव्य कहते हैं ऐसा कहना भी अशक्य है, क्योंकि पृथिवी आदि में तो "पृथिवी है" ऐसा प्रत्यय होता है, यह देश है, यह पूर्व देश है, इसतरह का प्रत्यय नहीं होता। शंका-पृथिवी आदि में पूर्व देश आदि का प्रत्यय पूर्वादि दिशा के निमित्त से होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy