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________________ कालद्रव्यवाद: ३१६ संवत्सरा दिव्यवहाराच्च तत्सिद्धिः । तन्न परपरिकल्पितं कालद्रव्यमपि घटते । होता है, अतः मीमांसकादि परवादी काल द्रव्य का निषेध नहीं कर सकते । वैशेषिक काल द्रव्य को मानता अवश्य है किंतु निरंश, नित्य, व्यापक एक रूप मानता है अतः उस काल द्रव्य की सिद्धि होना अशक्य है। काल द्रव्य तो अनेकरूप-असंख्यात कालाणुरूप हैं, संपूर्ण लोकाकाशों में एक एक प्रदेश पर एक एक अवस्थित है, अमूर्त है, वही निश्चय या मुख्यकाल द्रव्य है, घड़ी, मुहूर्त, दिवस, वर्ष, सागर, पल्य इत्यादि उस मुख्य काल की पर्यायों का समूह है, इसे व्यवहार काल कहते हैं, यह काल सूर्य, चन्द्र आदि के गमनागमन से प्रगट होता है, सूर्य आदि ज्योतिषी देवों के विमानों का भ्रमण केवल ढाई द्वीप में है अतः यहां पर तो व्यवहार काल अनुभव में आता है, किंतु अन्यत्र द्वीप समुद्र, या ऊर्ध्वादि लोक में ज्योतिषी का भ्रमण नहीं होने से प्रतीत नहीं होता. किंतु काल द्रव्य सर्वत्र लोक में होने से परापर प्रत्यय या वर्तना आदि होते ही रहते हैं। इस प्रकार वैशेषिक के अभिमत काल द्रव्य का निराकरण करके वास्तविक कालद्रव्य की सिद्धि की गयी है। ॥ कालद्रव्यवाद समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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