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________________ कालद्रव्यवादः रात्रादिभिर्वान्तरितं विप्रकृष्टं परमिति चोच्यते स्वल्पैस्त्वन्तरितं सन्निकृष्ट मपरमिति च । बह्वल्पभावश्च गुरुत्वपरिमाणादिवदपेक्षानिबन्धन: कालैकत्वे दुर्घट इति । योगपद्यादिप्रत्ययाविशेषात् कालस्यैकत्वे च गुरुत्वपरिमाणादेरप्येकत्वप्रसंगस्तुल्याक्षेपसमाधानत्वात् । ततो गुरुत्वपरिमाणादेरनेकगुणरूपतावत्कालस्यानेकद्रव्यरूपताभ्युपगन्तव्या । सन्निकृष्ट अथवा अपर कहते हैं, इसी प्रकार बहुत से क्षणों द्वारा, अथवा बहुत से दिन रातों द्वारा अंतरित हुए पदार्थ को विप्रकृष्ट या पर कहते हैं, और स्वल्प क्षणादि से अंतरित पदार्थ को सन्निकृष्ट या अपर कहते हैं, भावार्थ यह हुआ कि जिस वस्तु को उत्पन्न हुए अधिक समय व्यतीत हुआ है उसे अधिक समयवाली, पुरानी इत्यादि रूप से कहते हैं और जिसको हुए अल्प समय व्यतीत हुआ है उसे नवीन ऐसा कहते हैं। यह जो अल्प बहुत्वका भाव है वह गुरुत्व लघुत्व आदि के समान अपेक्षणीय होता है, अर्थात्-यह वस्त्र उस चौकी से लघु-हलका है, यह पेन्सिल उस पेन से गुरुतर है इत्यादि व्यवहार वस्तु को एक रूप मानने पर बन नहीं सकता, ऐसे ही बहुत समय का अल्प समय का इत्यादि व्यवहार काल द्रव्य को सर्वथा एक रूप मानने पर नहीं बनता है। यदि कोई शंका करे कि युगपत्-एक समय में होना, अयुगपत् होना इत्यादि प्रतीति में अविशेषता है अतः काल द्रव्य को एक मानने में बाधा नहीं है ? तो फिर गुरुत्व और लघुत्व आदि परिमाण में अविशेषता है अतः इनमें एकत्व या अभेद मानना चाहिए । आक्षेप और समाधान दोनों जगह समान रहेंगे। कहने का अभिप्राय यही है कि यदि आप वैशेषिक गुरुत्वादि परिमाण में प्रत्येक पदार्थ की अपेक्षा भेद होना मानते हैं तो काल द्रव्य में भी अतीतादि पदार्थ की अपेक्षा तथा योगपद्यादि प्रतीति की अपेक्षा भेद होना मानना ही पड़ेगा, अन्यथा गुरुत्व आदि परिमाण में भी भेद को नहीं मान सकते । निरंश, नित्य एक ऐसे काल द्रव्य में भूत, भविष्यत वर्तमानादि भेद होना असंभव है और जहां काल में अतीतादि भेद नहीं हैं वहां उसके निमित्त से होने वाला प्रतीत कालीन पदार्थ, वर्तमान कालीन पदार्थ इत्यादि भेद भी सर्वथा असंभव है । अतः जिस तरह गुरुत्व [भारी] आदि परिमाण को अनेक गुणरूप स्वीकार करते हैं उसी तरह काल द्रव्य को भी अनेक द्रव्य रूप स्वीकार करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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