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प्रमेयकमलमार्तण्डे
मूर्त्तत्वेन कालात्मनोः पाताभावात्कथं तदाधेयता ? इत्यप्ययुक्तम् ; अमूर्तस्यापि ज्ञानसुखादेरात्मन्याधेयत्वप्रसिद्धः।
एतेनामूर्त्तत्वान्नाकाशं कस्यचिदधिकरणमित्यपि प्रत्युक्तम् ; अमूर्तस्याप्यात्मनो ज्ञानाद्यधिकरणत्वप्रतीतेः । समानसम यत्तित्वाग्निखिलार्थानां नाधाराधेय भावः, अन्यथाकाशादुत्तरकालं भावस्तेषां स्यात् ; इत्यप्यसमीचीनम् ; समसमयवर्तिनामप्यात्मामूर्त्तत्वादीनां तद्भावप्रतीतेः। न खलु
शंका-ठीक है, आप जैन आत्मादि को व्यापक नहीं मानते हैं, किन्तु आत्मा एवं काल द्रव्य अमर्त है अतः उनका पात होना [ गिरना ] अशक्य है, फिर इनको आधेयरूप कैसे मान सकते हैं ?
___ समाधान-यह शंका भी प्रयुक्त है, अमूर्त पदार्थ को भी आधार की आवश्यकता रहती है, ज्ञान, सुख इत्यादि अमूर्त हैं किन्तु वे आत्मा के प्राधार में रहते हैं अर्थात् सुख आदिक अमूर्त होकर भी आधेयपने को प्राप्त हैं और आत्मा रूपो अधिकरण में रहते हैं ऐसे ही प्रात्मा तथा काल द्रव्य ये अमूर्त हैं किन्तु इनका आधार अवश्य है और वह अाकाश ही है, अन्य कोई पदार्थ नहीं है ।
__इस तरह अमर्त्त को भी आधार की जरूरत पड़ती है यह सिद्ध हया इसके सिद्ध होने से ही "आकाश अमर्त्त होने से किसी को आधार नहीं दे सकता" ऐसी शंका का निर्मूलन हुअा समझना चाहिए, अमूर्त पदार्थ जैसे किसी के आधार पर रहता है वैसे किसी के लिये अधिकरण भी होता है। ऐसा सिद्ध होता है, जिस प्रकार प्रात्मा अमूर्त है फिर भी वह ज्ञान प्रादि का अधिकरण होता है ।
शंका-संपूर्ण जीवादि पदार्थ समान समयवर्ती हैं अतः उनमें अाधार प्राधेयभाव नहीं बनता, अर्थात् आकाश और अन्य सभी पदार्थ एक साथ के हैं ऐसे समान कालीन पदार्थों में से कोई आधार और कोई प्राधेय होवे ऐसा होना अशक्य है, यदि इन प्राकाश आदि में आधार प्राधेयभाव मानना है तो आकाश के उत्तर काल में अात्मादि पदार्थों का सद्भाव होता है ऐसा मानना पड़ेगा ?
समाधान-यह कथन गलत है, समान कालीन पदार्थों में भी आधार-आधेय भाव देखा जाता है, प्रात्मा और उसका अमूर्तपना आदि धर्म ये समान समय वाले होते हैं किन्तु इनमें आधार-प्राधेय मानते हैं। आप वैशेषिक ने भी आत्मा तथा
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