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________________ प्राकाशद्रव्यविचारा २९७ कथं वा तदाधेयस्य शब्दस्य विनाश : ? स हि न तावदाश्रयविनाशाद्घटते; तस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् । नापि विरोधिगुणसद्भावात्; तन्महत्त्वादेरेकार्थसमवेतत्वेन रूपरसयोरिव विरोधित्वासिद्धेः । सिद्धौ वा श्रवणसमयेपि तदभावप्रसङ्गः; तदा तन्महत्त्वस्य भावात् । नापि संयोगादिविरोधिगुण:; तस्य तत्कारणत्वात् । नापि संस्कारः; तस्याकाशेऽसम्भवात् । सम्भवे वा तस्याभावे प्राकाशस्याप्यभावानुषङ्गस्तस्य तदव्यतिरेकात् । व्यतिरेके वा 'तस्य' इति सम्बन्धो न स्यात् । नापि शब्दोपलब्धि भिन्न भिन्न हैं, जैसे उसी हिमाचल तथा विंध्याचल की पृथिवी विभिन्न है। यदि ऐसा नहीं है तो रूप और रस के समान विध्याचल और हिमाचल प्रआकाश के एक देश में स्थित हो जाना चाहिए। अर्थात् दोनों पर्वत रूप और रस के भांति सहचारी एकत्र रहने वाले बन जायेंगे। किन्तु ऐसा किसी ने देखा नहीं है, और न किसी ने ऐसा माना ही है। तथा शब्द का प्राश्रय जब आकाश है तो शब्दरूप प्राधेय का विनाश किस प्रकार हो सकेगा ? आश्रय का विनाश होने से शब्द नष्ट होता है ऐसा तो कह नहीं सकते, क्योंकि शब्द के आश्रय को प्रापने नित्य माना है। विरोधी गुण के निमित्त से शब्द रूप प्राधेय का नाश होता है ऐसा कहना अशक्य है । शब्द के विरोधी गुण कौन हैं ? महत्व आदि गुण विरोधक नहीं हो सकते, क्योंकि महत्व आदि गुण तथा शब्दरूप गुण इन सबका प्राकाश रूप एक आधार में समवेतपना होना आपने स्वीकार किया है, जो एकार्थ समवेतपने से रहते हैं उनमें परस्पर विरोध नहीं होता है, जैसे रूप और रस एकार्थ समवेत हैं तो उनमें विरोध नहीं है। यदि इनमें विरोध माना जाय तो शब्द सुनने के समय में भी शब्द के अभाव का प्रसंग आता है, क्योंकि उस समय शब्द का विरोधी माना गया महत्व गुण मौजूद है । संयोग आदि गुण भी शब्द के विरोधी नहीं बन सकते क्योंकि संयोग आदि को तो आपने शब्द का कारण माना है । संस्कार नामा गुण भी विरोधक नहीं है, क्योंकि चौबीस गुणों में से संस्कार नामा जो गुण है उसे आपने आकाश द्रव्य में नहीं माना है। यदि संस्कार नामा गुण आकाश द्रव्य में मानोगे तो जब संस्कार का नाश होगा तो उसके साथ उससे अभिन्न अाकाश भी नष्ट होगा, क्योंकि गुण गुणो अव्यतिरेकी [अपृथक्] होते हैं । यदि आकाश और संस्कार में व्यतिरेक [भिन्नपना] मानेंगे तो "उस आकाश का यह संस्कार है" ऐसा सम्बन्ध जोड़ नहीं सकते । शब्द की उपलब्धि को प्राप्त कराने वाला जो अदृष्ट [भाग्य] है उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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