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________________ २६४ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रयावद्रव्यभावित्वं च विरुद्धम् ; साध्यविपरीतार्थप्रसाधनत्वात् । तथाहि-स्पर्शवद्रव्य गुणः शब्दोऽस्मदादिबाह्य न्द्रियप्रत्यक्षत्वे सत्ययावद्र्व्यभावित्वात्पट रूपादिवत् । 'अस्मदादिपुरुषान्तरप्रत्यक्षत्वे सति पुरुषान्तराप्रत्यक्षत्वात्' इति वास्वाद्यमानेन रसा दिनानैकान्तिकः । प्राश्रयाद्भर्यादेरन्यत्रोपलब्धेः' इति चासङ्गतम् ; भेर्यादे. शब्दाश्रयत्वासिद्ध स्तस्य तन्निमित्तकारणत्वात् । प्रात्मादिगुणत्वा (त्व) प्रतिषेधस्तु सिद्धसाधनान समाधानमर्हति । शब्द पृथिवी आदि का विशेष गुण नहीं है ऐसा प्रतिपादन करते हुए दैशेषिक ने "अयावत् द्रव्य भावित्वं" हेतु दिया था वह भी विरुद्ध है, अर्थात् आप शब्द को अयावत् द्रव्यभावित्व हेतु से अाकाश का गुण सिद्ध करना चाहते हैं किन्तु इससे विपरीत यह हेतु तो शब्द को स्पर्शवाले द्रव्य का गुण सिद्ध करा देता है। इसी को दिखाते हैं-- शब्द स्पर्श वाले द्रव्य का गुण है [ यहां पर भी जैनाचार्य प्रसंग वश हो शब्द को गुणरूप कह रहे हैं ] क्योंकि वह हमारे बाह्य न्द्रिय [स्पर्शनादि पांचों इन्द्रियां बाह्य न्द्रिय कहलाती हैं। प्रत्यक्ष होकर अयावत् द्रव्य भावी है, जैसे पट के रूपादि गुण हैं । तथा शब्द अस्मदादि पुरुषांतर के प्रत्यक्ष होकर अन्य पुरुष के प्रत्यक्ष नहीं अर्थात् दूरवर्ती पुरुष के प्रत्यक्ष नहीं होता ऐसा शब्द में पृथिवी आदि के विशेष गुणत्व का निषेध करने के लिये वैशेषिक ने हेतु दिया था वह हेतु भी आस्वाद्यमान हुए रस आदि गुण के साथ अनैकान्तिक हो जाता है, क्योंकि जो अन्य पुरुष के अप्रत्यक्ष है वह पृथिवी आदि का विशेष गुण नहीं होता ऐसा प्रापको साध्य सिद्ध करना है, किन्तु वह सिद्ध नहीं हो सकता है, स्वाद में लिया हुआ रस पुरुषांतर के अप्रत्यक्ष तो है किन्तु उसमें पृथिवी आदि के विशेष गुणत्व का प्रभाव नहीं है अपितु वह पृथिवी आदि का विशेष गुण ही है सो यह साध्य के अभाव में हेतु के रहने से अनेकान्तिक दोष हा। शब्द अपने आश्रयभूत भेरी पटह आदि से अन्य स्थान पर उपलब्ध होता है अतः वह आकाश का गुण है ऐसा वैशेषिक ने कहा था, वह भी असंगत है, भेरी पटह आदि पदार्थ शब्द के प्राश्रय नहीं हैं। शब्द के निमित्त कारण हैं। शब्द को अाकाश का गण सिद्ध करने के लिये अंतिम हेतु दिया था यह शब्द आत्मा का विशेष गुण नहीं है अतः आकाश का होना चाहिए, सो हेतु भी व्यर्थ है, कोई भी वादी प्रतिवादी शब्द को प्रात्मा का गण नहीं मानते हैं। यह प्रसिद्ध बात है अतः इस विषय में अधिक नहीं कहते हैं। Jain Education International www.jainelibrary.org. For Private & Personal Use Only
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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