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________________ २६२ प्रमेयकमलमार्तण्डे गुणत्वस्यापि । तथा हि-शब्दोऽत्यन्तपरोक्षाकाशविशेषगुणो न भवत्यस्मदादिप्रत्यक्षत्वात्कार्यद्रव्यरूपादिवत् । न ह्यस्मदादिप्रत्यक्षत्वं परमाणुविशेषगुणत्वमेव निराकरोति शब्दस्य नाकाशविशेषगुणत्वम् उभयत्राविशेषात् । यथैव हि परमाणुगुणो रूपादिरस्मदाद्यप्रत्यक्षस्तथाकाशगुणो महत्त्वादिरपि । यच्चाप्युक्तम्-'नापि कार्यद्रव्याणाम्' इत्यादि; तदप्ययुक्तम् ; शब्दस्याकाशगुणत्वनिषेधे कार्यद्रव्यान्तराप्रादुर्भावेप्युत्पत्त्य भ्युपगमे शब्दो निराधारो गुण : स्यात् । तथा च 'बुद्धयादयः क्वचिद्वतन्ते गुणत्वात्' इत्यस्य व्यभिचारः । ततः कार्य द्रव्यान्तरोत्पत्तिस्तत्राभ्युपगन्तव्येत्यसिद्धो हेतुः । है, यदि शब्द को परमाणु का गुण मानेंगे तो प्रत्यक्ष विरोध होगा। ऐसा आप वैशेषिक ने स्वीकार किया है ठीक इसीप्रकार शब्द को आकाश का गुण मानने में प्रत्यक्ष विरोध होता है अतः शब्द को अाकाश का गुण रूप भी नहीं मानना चाहिए। अनुमान से सिद्ध करते हैं- शब्द अत्यन्त परोक्ष ऐसे आकाश का विशेष गुण नहीं है, क्योंकि वह हमारे प्रत्यक्ष होता है, जैसे कार्य द्रव्यस्वरूप पृथिवी अादि हैं उनके गुण हमारे प्रत्यक्ष होते हैं । जो वस्तु हम जैसे सामान्य मनुष्यों के प्रत्यक्ष हुआ करती है वह परमाणु का विशेष गुण रूप मात्र ही नहीं होती हो सो बात नहीं है, वह वस्तु तो आकाश द्रव्य का विशेष गुण भी नहीं हो सकती है, क्योंकि परमाणु का गुण हो चाहे आकाश का गुण हो दोनों में भी अस्मदादि प्रत्यक्ष होने का निषेध है, न परमाणु का गण हमारे ज्ञान के प्रत्यक्ष हो सकता है, और न आकाश का विशेष गुण ही हमारे ज्ञान के प्रत्यक्ष हो सकता है, उभयत्र समानता है । जैसे परमाणु के रूपादि गुणों को हम प्रत्यक्ष नहीं कर सकते वैसे ही आकाश के महत्वादि गुण प्रत्यक्ष से दिखायी नहीं देते हैं । पृथिवी आदि कार्य द्रव्यों का गुण भी शब्द नहीं है इत्यादि जो पहले कहा था वह प्रयुक्त है शब्द में आकाश द्रव्य के गुणत्व का निषेध हो चुका है, और कार्य द्रव्यांतर में उस शब्द का प्रादूर्भाव न मानकर उसकी उत्पत्ति होना भी स्वीकार करे तो यह आपका शब्द नामा गुण निराधार बन जायगा । और इसतरह शब्द रूप गुण को निराधार मानोगे तो "बुद्धि आदिक गुण किसी आधार पर रहते हैं, क्योंकि वे गुण स्वरूप हैं" इस कथन में बाधा आती है, अतः शब्द को उत्पत्ति कार्य द्रव्यांतर से होती है ऐसा स्वीकार करना होगा और यह बात स्वीकार करने पर शब्द को गुण रूप सिद्ध करने वाला "कार्य द्रव्यांतर अप्रादुर्भावे अपि उपजायमानत्वात्" हेतु प्रसिद्ध ही ठहरता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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