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________________ २८८ प्रमेयकमलमार्तण्डे स्वाश्रयसंयुक्ते प्राश्रयान्तरे कर्मारभेते" [ ] इत्यादिविरोध: । न च वीचीतरङ्गादावप्य प्राप्तकार्यदेशत्वे सत्यारम्भकत्वं दृष्टं येनात्रापि तथा तत्कल्प्येताध्यक्षविरोधात् । अथ तद्देशे गत्वा; तहि सिद्धं शब्दस्य क्रियावत्त्वं द्रव्यत्वप्रसाधकम् । किञ्च, आकाशगुणत्वे शब्दस्यास्मदादिप्रत्यक्षता न स्यादाकाशस्यात्यन्तपरोक्षत्वात् ; तथाहियेऽत्यन्तपरोक्षगुरिणगुणा न तेऽस्मदादिप्रत्यक्षाः यथा परमाणुरूपादयः, तथा च परेणाभ्युपगतः शब्द इति । न च वायुस्पर्शन व्यभिचारः; तस्य प्रत्यक्षत्वप्रसाधनात् । आश्रयांतर में क्रिया करते हैं ऐसा कहा है और पहले कहा कि वे शरीर प्रदेश में स्थित होकर क्रिया को करते हैं] शब्द से शब्द की उत्पत्ति होने के लिये अापने वीची तरंगों का दृष्टान्त दिया है, किन्तु वे भी कार्यों के प्रदेशों को आगे आगे के लहरों के प्रदेशों को प्राप्त हुए बिना उन कार्यों को नहीं करते हैं, जिससे कि वीची तरंगों का दृष्टांत देकर यहां शब्द में भी दैसी कल्पना की जा सके। यदि वैसो कल्पना करेंगे तो प्रत्यक्ष से विरोध प्राता है । दूसरा विकल्प जो शब्दांतरों को उत्पन्न करता है वह उन शब्दों के स्थान पर जाकर करता है, ऐसा माने तो शब्द का क्रियावानपना सिद्ध हुआ। और क्रियावानपना सिद्ध होने पर शब्द को द्रव्यरूप मानना होगा, क्योंकि क्रियावान द्रव्य ही होता है । अर्थात् गुण क्रियाशील नहीं होते किन्तु द्रव्य होता है ऐसा आपका भी कहना है । किञ्च, शब्द को यदि आकाश का गुण माना जाय तो वह हमारे प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, क्योंकि आकाश अत्यन्त परोक्ष है, अनुमान सिद्ध बात है कि जो अत्यंत परोक्ष गुणी के [द्रव्य के] गुण होते हैं वे हम जैसे के प्रत्यक्ष नहीं होते हैं, जिसतरह परमाणु गुणो के परोक्ष होने से उसके रूपादिगुण भी परोक्ष है, परवादी वैशेषिक आदि शब्द को अत्यन्त परोक्ष आकाश का गुण मानते हैं अतः वह शब्द हमारे प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । इस अनुमान स्थित हेतु को वायुस्पर्श के साथ व्यभिचरित भी नहीं कर सकते, अर्थात् गुणी परोक्ष है तो गुण भी परोक्ष होने चाहिए ऐसा जैन ने कहा है किंतु वह गलत है क्योंकि वायुरूप गुणी परोक्ष है और उसका स्पर्शगुण परोक्ष नहीं है ऐसा कोई जैन के हेतु को सदोष करना चाहे तो ठीक नहीं हम जैन ने वायु को भी कथंचित् प्रत्यक्ष होना माना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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