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प्रमेयकमलमार्तण्डे अथ शब्दान्तराणां प्रथमः शब्दोऽसमवायिकारणं तत्सदृशत्वात्, अन्यथा तद्विसदृशशब्दान्तरोत्पत्तिप्रसङ्गो नियामकाभावात्, नन्वेवं प्रथमस्यापि शब्दस्य शब्दान्तरसदृशस्यान्यशब्दादसमवायिकारणादुत्पत्तिः स्यात् तस्याप्यपरपूर्वशब्दादित्यनादित्वापत्तिः शब्दसन्तानस्य स्यात् । यदि पुनः प्रथमा शब्द: प्रतिनियतः प्रतिनियताद्वक्तृव्यापारादेवोत्पन्नः स्वसदृशानि शब्दान्तराण्यारभेत; तहि किमायेन शब्देनासमवायिकारणेन ? प्रतिनियतवक्तृव्यापारात्तज्जनितप्रतिनियतवाय्वाकाशसंयोगेभ्यश्च सदशापरापरशब्दोत्पत्तिसम्भवात् । तन्नैक : शब्द: शब्दान्तरारम्भकः ।
शब्दात च शब्दोत्पत्तिः" संयोग से, विभाग से एवं शब्द से भी शब्द की उत्पत्ति होती है ऐसा आपके सिद्धांत का कथन खण्डित हो जाता है ।
__ वैशेषिक-पहला शब्द अन्य शब्दों का असमवायी कारण होता है, क्योंकि उसके समान है, यदि प्रथम शब्द को शब्दान्तरों का कारण न माना जाय तो उस प्रथम शब्द से विसदृश अन्य अन्य आगे के शब्द उत्पन्न होने लग जायेंगे, कोई नियम नहीं रहेगा।
जैन-इसतरह कहो तो पहला शब्द भी सदृश अन्य शब्द रूप असमवायी कारण से उत्पन्न होना चाहिए तथा वह सदृश शब्दांतर भी अन्य पहले के शब्द से उत्पन्न होना चाहिए, इसप्रकार शब्दों की संतान परम्परा अनादि की बन जायगी। यदि पहला शब्द प्रतिनियत है, प्रतिनियत वक्ता के व्यापार से ही उत्पन्न होता है और स्वसदृश अन्य शब्दों को उत्पन्न करता है तो प्रथम शब्द को असमवायी कारण रूप मानने से क्या प्रयोजन रहा ? प्रतिनियत वक्ता के व्यापार से हुया जो वायु और आकाश के संयोग उन संयोगों से ही सदृश अपर अपर शब्दों की उत्पत्ति हो जायगी। अतः एकरूप शब्द शब्दांतर का प्रारम्भक होता है ऐसा जो प्रथम विकल्प कहा था वह प्रसिद्ध है। सबसे पहले वक्ता के व्यापार से अनेक रूप शब्द उत्पन्न होता है, ऐसा दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं, तालु अादि से वायु और आकाश का संयोग होना रूप अकेले वक्ता के व्यापार से अनेक रूप शब्द उत्पन्न होना तो असम्भव है। तथा एक वक्ता के एक साथ अनेक तालु आदि से अाकाश का संयोग होना अशक्य है, क्योंकि प्रयत्न एक रूप है । अर्थात् प्रयत्न एक साथ एक ही होता है। बिना प्रयत्न के तालू आदि के क्रिया से होनेवाला जो आकाश आदि का संयोग है वह हो नहीं सकता, जिससे कि अनेक शब्द बन जाय ! सारांश यह है कि प्रथम तो वक्ता के बोलने के लिए
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