________________
प्राकाशद्रव्यविचारः
२८३
दर्शनं चासिद्धम् ; सतोऽपि निश्चेतुमशक्यत्वात् । विपक्षेऽदर्शनमात्राद्वयावृत्तिसिद्धौ
'यद्वदाध्ययनं किञ्चित्तदध्ययनपूर्वकम् ।। वेदाध्ययन वाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ।।"
[ मी० श्लो. पृ० ६४६ ] इत्यस्यापि गमकत्वप्रसंग: । न खलु वेदाध्ययनमतदध्ययनपूर्वकं दृष्टम् । तथा चास्यानादित्वसिद्धेरीश्वरपूर्वकत्वेन प्रामाण्यं न स्यात् । न च कृतकत्वादावप्ययं दोषः समानः; तत्र विपक्षे हेतोः सद्भावबाधकप्रमाणसम्भवात् ।
व्यवस्था करेंगे तो पर लोक आदि वस्तु का अभाव होकर चार्वाक मत आवेगा क्योंकि परलोका दि बहुत से पदार्थों का आप जैसे को प्रदर्शन रहता है। सभी व्यक्तियों को जिसका दर्शन न हो ऐसा तो सिद्ध होगा नहीं, सभी प्राणियों को भले ही किसी का प्रदर्शन हो किन्तु उसका निश्चय करना अशक्य रहता है। सभी को अमुक वस्तु उपलब्ध नहीं होती ऐसा निर्णय कोई नहीं दे सकता ।
तथा विपक्ष में हेतु के दिखायी नहीं देने मात्र से उसकी उस विपक्ष से व्यावृत्ति होना सिद्ध करेंगे तो अतिप्रसंग होगा। आगे इसीका खुलासा करते हैं
जो कुछ वेद का अध्ययन होता है वह वेदाध्ययन पूर्वक ही हो सकता है, क्योंकि वह वेद का अध्ययन कहलाता है, जैसे कि वर्तमान का अध्ययन होता है । १।। इसप्रकार मीमांसक वेद को अपौरुषेय सिद्ध करने के लिये अनुमान देते हैं किंतु यह अनुमान सत्य नहीं कहलाता, क्योंकि इस अनुमान का "वेदाध्ययन वाच्यत्वात्" हेतु भलीप्रकार से विपक्षव्यावृत्ति वाला नहीं है, सो यदि विपक्ष में हेतु के नहीं देखनै मात्र से उसकी विपक्षव्यावृत्ति सही मानी जायगी तो वेदाध्ययनवाच्यत्व जैसे सदोष हेतु भी स्वसाध्य के गमक माने जायेंगे। वेद का अध्ययन तो बिना उसके अध्ययन के कराया जाना देखा नहीं गया है । इसप्रकार आप वैशेषिक इस मीमांसक के वेदाध्ययनवाच्यत्व नामा हेतु को सत्य मानते हैं तब तो वेद का अनादिपना सिद्ध होवेगा। फिर आप जो उसे ईश्वर कृत मानते हैं, वेद को ईश्वर ने बनाया है अतः वह प्रामाण्य है ऐसा कहते हैं वह असत् कहलायेगा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org