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________________ २७६ प्रमेयकमलमार्तण्डे देशान्तरप्राप्ति लिङ्गजनितं गत्यनुमानम्; कथं पुनरस्याध्यक्षाभासत्वम् ? श्रनुमानेन बाधनाच्चेत्; अनेनानुमानस्य बाधनादनुमाना भासता किन्न स्यात् ? प्रथानुमानबाधितविषयत्वान्नेदमनुमानस्य बाधकम्; श्रनुमानमप्येतद्द्बाधितविषयत्वान्नास्य बाधकं स्यात् । न च तदनुमानमस्ति । नन्विदमस्ति - क्षणिकः शब्दोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् सुखादिवत् । सत्यमस्ति, किन्त्वेकशाखाप्रभवत्ववदेतत्साधनं प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वान्न अत: जैन ने जो कहा कि प्रत्यक्ष को अनुमान बाधित नहीं करता । सो बात नहीं । प्रत्यक्षाभास को तो अनुमान बाधित करता ही है । जैन - प्रच्छा यह तो ठीक कहा किन्तु शब्द के एकत्व का ग्राहक प्रत्यभिज्ञान स्वरूप मानस प्रत्यक्षज्ञान प्रत्यक्षाभास क्यों कर कहलायेगा ? यदि कहो कि अनुमान द्वारा बाधित होने से प्रत्यक्षाभास कहलाता है तो इससे विपरीत हम कहते हैं कि एकत्व ग्राही मानस प्रत्यक्ष द्वारा क्षणिकत्वग्राही अनुमान में बाधा आने से अनुमान ही अनुमानाभास है, ऐसा क्यों न माना जाय ? वैशेषिक - यह जो शब्द के एकत्व का प्रतिपादक ज्ञान है उसका विषय अनुमान द्वारा बाधित होता है, जैसा कि चन्द्रादि को स्थिररूप बतलानेवाला प्रत्यक्षप्रमाण अनुमान से बाधित होता है अतः वह प्रत्यक्ष अनुमान का बाधक नहीं बनता है । जैन - शब्द को क्षणिक बतलानेवाला अनुमान भी बाधित विषयवाला है अतः वह भी प्रत्यभिज्ञान का बाधक नहीं बन सकता । तथा आपके पास ऐसा कोई सत्य अनुमान भी नहीं है जो कि शब्द की क्षणिकता को ठीक से सिद्ध कर देवे । वैशेषिक- - शब्द की क्षणिकता को सिद्ध करनेवाला अनुमान मौजूद है, हम आपको बतलाते हैं-"क्षणिक : शब्द: ग्रस्मदादि प्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् सुखादिवत् " शब्द क्षणिक होता है, क्योंकि हमारे प्रत्यक्ष होकर व्यापक द्रव्यका विशेष गुण है, जैसे सुखादिगुण आत्मा के विशेष गुण हैं । जैन —- यह अनुमान आपने दिया तो सही किन्तु एक शाखा प्रभव हेतु की तरह यह भी प्रत्यभिज्ञान तथा प्रत्यक्ष द्वारा बाधित प्रतिज्ञा वाला होने से अपने साध्य को सिद्ध करने वाला नहीं है, अर्थात् इस वृक्ष के इस शाखा के सारे फल पके हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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