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________________ माकाश द्रव्यविचार: २७३ ननु प्रत्यभिज्ञानस्य भवद्दर्शने दर्शनस्मरणकारणकत्वादत्र च तदभावात्कथं तदुत्पत्ति: ? न खलूपाध्यायोक्ते शब्दे दर्शनवत्स्मरणं भवति; अस्य पूर्वदर्शनाद्याहितसंस्कारप्रबोधनिबन्धनत्वात् । न च कारणाभावे कार्यं भवत्यतिप्रसंगात्; इत्यप्यनुपपन्नम् ; सम्बन्धिताप्रतिपत्तिद्वारेणात्रैकत्वस्य प्रतोतेः । सम्बन्धितायां च दर्शनस्मरणयोः सद्भावसम्भवात्प्रत्यभिज्ञानस्योत्पत्तिरविरुद्धा । तथाहिप्रत्यक्षानुपलम्भतोऽनुमानतो वा तत्कार्यतया तत्संबन्धिनं शब्दं प्रतिपद्येदानीं तत्स्मृत्युपलम्भोद्भूतं शब्द की नित्यता सिद्ध होती है । वैशेषिक अापके जैनमत में दर्शन और स्मरण द्वारा प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति मानी है वह दर्शनादिरूप कारण शब्द में होना सम्भव नहीं, फिर किस प्रकार वह ज्ञान उत्पन्न होवे ? उपाध्याय के कहे हुए शब्द में जैसे दर्शन अर्थात् श्रवणेन्द्रियज प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वैसे स्मरण ज्ञान नहीं होता क्योंकि स्मरण ज्ञान पूर्व में देखे हुए वस्तु के संस्कार के जाग्रत होने पर होता है। कारण के अभाव में कार्य नहीं होता है, यदि माना जाय तो अतिप्रसंग पायेगा । जैन-यह कथन गलत है, शब्द का सम्बन्धीपना जानने से उसमें एकत्व की प्रतीति हो जाया करती है, अर्थात् मेरे द्वारा यह जो शब्द सुना जा रहा है वह उपाध्याय का कहा हुआ है, इस तरह शब्द में एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता है । जब संबंधिता दर्शन और स्मरण के सद्भाव में ही सम्भव है तब यहां शब्द के विषय में प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति होना अविरुद्ध ही होगा। अब इसी को कहते हैं-प्रत्यक्ष और अनुपलंभ प्रमाण से अर्थात् अन्वय व्यतिरेक से या अनुमान प्रमाण से यह उपाध्याय का कार्य स्वरूप शब्द है - उपाध्याय का कहा हुया है इस तरह उपाध्याय सम्बन्धी शब्द को जानकर वर्तमान में उस शब्द की स्मृति होने से उत्पन्न हुआ जो प्रत्यभिज्ञान है वह उपाध्याय तथा शब्द के सम्बन्धीपने को जानता हुआ शब्द के एकत्व विशिष्ट को ही जानता है यदि ऐसी बात नहीं होती तो उपाध्याय का कहा हुप्रा शब्द सुन रहा हूं इसतरह का प्रतिभास नहीं होता अपितु उपाध्याय के कहे हुए शब्द से उत्पन्न हुआ उसके समान अन्य कोई शब्दान्तर को सुन रहा हूं ऐसा प्रतिभास होना चाहिए था ? किन्तु होता नहीं। आपने शब्द का वीचीतरंग न्याय से उत्पन्न होना बताया सो उसका पागे इसी ग्रन्थ में निषेध करनेवाले हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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