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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे इयत्ता चेयं यदि परिमाणादन्या; कथमन्यस्यानवधारणेऽन्यस्याभाव: ? न खलु घटानवधारणे पटाभावो युक्तः । परिमाणं चेत् ; तहि 'इयत्तानवधारणात्परिमाणं नास्ति' इत्यत्र 'परिमारणं नास्ति परिमारणानवधारणात्' इत्येतावदेवोक्त स्यात् । अल्पत्वमहत्त्वप्रत्ययतस्तत्परिमारणावधारणे च कथं तदनवधारणं नामामल कादावपि तत्प्रसंगात् ? मन्दतीव्रताभिसम्बन्धात्तत्प्रत्ययसम्भवे च मन्दवाहिनि होना स्वीकार करो तो "यहां पर शीत स्पर्श है, यहां उष्ण स्पर्श है" ऐसा प्रतिभास होना चाहिए, न कि शीत वायु है उष्ण वायु है, ऐसा प्रतिभास होना चाहिए ? वायु का प्रतिभास रूप की प्रतीति कराने वाले ज्ञान में नहीं होता, अपितु स्पर्श की प्रतीति वाले ज्ञान में होता है । शीत प्रादि स्पर्श विशेष जो परिणाम है वही वायु नामा पदार्थ है, और वह स्पर्श विशेष इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है, अतः वायु को किस प्रकार प्रत्यक्ष नहीं माना जाय ? अर्थात् उसे प्रत्यक्ष ही स्वीकार करना होगा। ___ वैशेषिक का कहना है कि शब्द के मापका यह अवधारण नहीं होता कि यह शब्द इतने परिमाण वाला है, अत: उसमें अल्प और महान परिमाण स्वरूप गुण नहीं है इत्यादि, सो यह इयत्ता (इतनापना) परिमाण से यदि अन्य है तो इयत्ता का अवधारण अर्थात् निश्चय नहीं होने से परिमाण का अवधारण भी नहीं होता ऐसा किस प्रकार कह सकते हैं ? क्योंकि दोनों पृथक्-पृथक् हैं, ऐसे पृथक् दो वस्तु में से एक का अवधारण न हो तो दूसरे का अभाव है ऐसा नहीं कह सकते, घट का अवधारण नहीं होने पर पट का अभाव करना तो युक्त नहीं। यदि कहा जाय कि इयत्ता और परिमाण अन्य अन्य नहीं है एक ही है तो "इयत्ता का निश्चय नहीं होने से परिमाण नहीं है" ऐसा जो पहले कहा था उसका अर्थ यही निकला कि परिमाण [माप] नहीं क्योंकि परिमाण का अवधारण नहीं होता है किन्तु ऐसा कहना बनता नहीं, क्योंकि यह शब्द अल्प है, यह महान है इत्यादि प्रतिभास से शब्द के परिमाण का [मापका] अवधारण हो रहा है तब कैसे कह सकते हैं कि शब्द का परिमाण अवधारित नहीं होता, शब्द के अल्प-महत्व का निश्चय होते हुए भी यदि उसका शब्द में अस्तित्व न माना जाय तथा उसका अवधारण न माना जाय तो आंवला, बेल आदि फलों के परिमाण का [ अल्पमहत्वरूप छोटे बड़े का ] अवधारण नहीं मानने का प्रसंग पायेगा। .... शंका-शब्द में मंद और तीव्रता का अभिसम्बन्ध होता है अतः यह शब्द अल्प है यह महान है, ऐसा प्रतिभास हो जाया करता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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