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________________ २६४ प्रमेयकमलमार्तण्डे नाप्यल्पमहत्त्वपरिमाणाश्रयत्वम् ; अल्पमहत्त्वप्रतीतिविषयत्वाबदरादिवत् । ननु च 'अल्प: शब्दो मन्दः' इत्यादिप्रतीत्या मन्दत्वमेव धर्मो गृह्यते, 'महान् पटुस्तीव्रः' इत्यादिप्रतीत्या च तीव्रत्वम्। न पुन : परिमाणमियत्तानवधारणात् । नहि 'अयं महाञ्छब्दः' इति व्यवस्यन् 'इयान्' इत्यवधारयति, यथा द्रव्याणि बदरामलकबिल्वादीनि । मन्दतीव्रता चावान्तरो जातिविशेषो गुणवृत्तित्वाच्छब्दत्ववत्; तदप्यपेशलम् ; यतः कथं शब्दस्य गुणत्वं सिद्धं यतस्तवृत्तित्वान्मन्दत्वादेर्जातिविशेषत्वं सिद्धयेत् ? प्रद्रव्यत्वाच्चेत् ; तदपि कथम् ? अल्पमहत्त्वपरिमाणानधिकरणत्वाच्चेत् ; तदपि कुतः ? गुणत्वात् ; चक्रकप्रसङ्गः। माना जाय, स्पर्श रहित माना जाय तो उसका स्पर्शवान भित्ति आदि से प्रतिघात होना प्रसिद्ध होता है, अतः शब्द का स्पर्शगुण का आश्रयपना असिद्ध नहीं है । शब्द को द्रव्यरूप सिद्ध करने के लिए दूसरा कारण यह भी बताया था कि शब्द में अल्प तथा महान परिमाण रहता है अतः शब्द द्रव्य ही है, गुण नहीं है, सो यह अल्प महत्व परिमाणाश्रयत्व हेतु भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि बेर, प्रांवला आदि फलों के समान शब्द में भी अल्प तथा महान-छोटे बड़ेपन रूप मापकी प्रतीति आती है। वैशेषिक-शब्द में अल्प तथा महानपने को जो प्रतीति होती है उसमें ऐसी बात है कि यह शब्द अल्प है मंद है इत्यादि प्रतीति से मंदपना रूप धर्म ही ग्रहण होता है, तथा यह शब्द महान है, पट् है, तीव्र है इत्यादि प्रतीति से तीव्ररूप धर्म ही ग्रहण होता है किन्तु इससे परिमाण-[माप] ग्रहण नहीं होता क्योंकि इयत्तारूप से निश्चय नहीं होता, किसी भी व्यक्ति को यह शब्द महान है, बड़ा भारी है इत्यादि रूप से निश्चय होते हुए भी उसकी इयत्ता इतनापना तो निश्चित नहीं होता, जैसे बेर प्रांवला बिल्व आदि में अल्प तथा महानपना अर्थात् छोटे बड़े का इयत्ता-इतनापना बिलकुल निश्चित हो जाता है। तथा शब्द में जो मंद या तीव्रता प्रतीत होती है वह एक अवांतर जाति विशेष है, क्योंकि वह गुणवृत्ति वाली है जैसे शब्द में शब्दत्व रहता है। जैन-यह कथन असत् है, शब्द का गुणपना सिद्ध किये बिना यह नहीं कह सकते हैं कि तीव्र मंदता गुणवृत्ति वाली होने से जाति विशेष है । आप शब्द में गुणपना किसप्रकार सिद्ध करते हैं । शब्द गुणरूप है क्योंकि वह अद्रव्य है, इस तरह अद्रव्यत्व हेतु से गुणत्व सिद्ध करे तो वह अद्रव्यत्व भी किस हेतु से सिद्ध होवेगा? शब्द अद्रव्य है, क्योंकि वह अल्प तथा महान परिमाण का अधिकरण नहीं है, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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