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________________ २५६ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे यथा घटादय:, तथा च शब्दा इति । गुणत्वाच्च ते क्वचिदाश्रिता यथा रूपादयः । न च गुणत्वमसिद्धम् ; तथाहि - शब्दो गुणः प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावत्वे सति सत्तासम्बन्धित्वाद्रूपादिवत् । न चेदं साधनमसिद्धम् ; तथाहि शब्दो द्रव्यं न भवत्येकद्रव्यत्वाद्रूपादिवत् । न चेदमप्यसिद्धम् ; तथाहिएकद्रव्यः । शब्दा सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाह्य केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्तद्वदेव | 'सामान्यविशेषवत्त्वात् ' पदार्थ गुण है [ पक्ष साध्य ] क्योंकि उसमें द्रव्य तथा कर्मपने का निषेध होकर सत्ता समवाय से सत्व है, [ हेतु ] जैसे रूप रस आदि में द्रव्यपना और कर्मपने का निषेध होकर सत्ता समवाय से सत्व है, अतः वे गुण रूप हो सिद्ध होते हैं । हमारा हेतु असिद्ध भी नहीं है, कैसे सो ही बताते हैं - शब्द द्रव्य नहीं है, क्योंकि वह एक द्रव्यत्वरूप है जैसे रूप रसादिक एक द्रव्यत्वरूप हैं इस अनुमान का एक द्रव्यत्वात् हेतु प्रसिद्ध नहीं है, सो ही कहते हैं - एक द्रव्य जो प्रकाश है उसी के प्राश्रय में रहने का है स्वभाव जिसका ऐसा यह शब्द है [ साध्य ] क्योंकि वह सामान्य विशेषवान होकर बाह्य एक इन्द्रिय [कर्ण] द्वारा प्रत्यक्ष होता है [ हेतु ] रूपादि के समान [ दृष्टांत ] इस अनुमान में सामान्य विशेषवान होकर "इतना ही हेतु देते तो परमाणुत्रों के साथ व्यभिचार आता, इसलिए इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होता है" ऐसा कहा है । " सामान्यविशेषवत्वे सति इन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् " इतना हेतु भी घटादि के साथ अनेकान्तिक होता है अतः एक इंद्रियप्रत्यक्षत्वात् ऐसा "एक" पद बढ़ाया है । तथा एक इन्द्रिय प्रत्यक्षत्वात् कहने से भी हेतु की सदोषता हट नहीं पाती आत्मा के साथ व्यभिचार आता है अत: "बाह्य" विशेषण जोड़ दिया है, इसी प्रकार रूपत्व आदि से होने वाली ग्रनैकान्तिकता को हटाने के लिए " सामान्यविशेषवत्वे सति" विशेषण प्रयुक्त हुआ है, इस तरह हमारा यह अनुमान शब्द को प्रकाश द्रव्य का गुण रूप सिद्ध करा देता है । विशेषार्थ - हम वैशेषिक जैन के समान शब्द को द्रव्य की पर्यायरूप नहीं मानते किन्तु श्राकाश का गुण मानते हैं, और यह मान्यता अनुमान प्रमाण से भली प्रकार से सिद्ध भी होती है, जैसा कि " एकद्रव्यः शब्दः सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाह्य केन्द्रिय प्रत्यक्षत्वात्" यह अनुमान कह रहा है, इस अनुमान में सामान्यविशेषवत्व, बाह्य, एक, ऐसे तीन विशेषणों से युक्त इन्द्रिय प्रत्यक्षत्व हेतु प्रस्तुत किया गया है, सो इन विशेषणों की सार्थकता बताते हैं- सामान्य विशेषवान होने से शब्द एक [ श्राकाश ] द्रव्य रूप है ऐसा कहने से परमाणुत्रों से व्यभिचार आता है क्योंकि परमाणु सामान्य : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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