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________________ अवयविस्वरूपविचारः २५१ वोस्तु; तन्न; प्रात्मपृथिव्यादीनामप्येवं तभेदाभावादुपादानोपादेयभाव : स्यात्, तथा चात्माद्वैतप्रसंगात्कुतः पृथिव्यादिभेदः स्यात् ? तन्नात्यन्तिकभेदे पृथिव्यादीनां तद्भावो घटते । अस्ति चासौचन्द्रकान्ताज्जलस्य, जलान्मुक्ताफलादेः काष्ठादनलस्य, व्यजनादेश्चानिलस्योत्पत्तिप्रतीतेः । चन्द्रकांताद्यन्तर्भूताज्जलादेरेव द्रव्याज्जलाद्युत्पत्तिः; इत्यप्यनुपपन्नम्। तत्र तत्सद्भावावेदकप्रमाणाभावात् । तथापि चन्द्रकान्तादौ जलाद्यभ्युपगमे मृत्पिण्डादौ घटाद्यभ्युपगमोपि कर्तव्य इति सांख्यदर्शनमेव स्यात् । वैशेषिक-इस तरह तंतु और वस्त्र आदि में पथिवीत्व आदि सामान्य की अपेक्षा अभेद होने से उपादान उपादेय बनता है तो पृथिवी जल आदि में भी द्रव्यत्व आदि सामान्य की अपेक्षा अभेद होने से उपादान-उपादेय भाव मानना चाहिए । जैन-ऐसा कहना गलत है इस तरह माने तो आत्मा और पृथिवी आदि में द्रव्यत्व की अपेक्षा अत्यंत भेद का अभाव होने से उपादान उपादेय भाव सिद्ध होगा। और इनमें उपादेय उपादान भाव स्वीकार करने पर प्रात्माद्वैतवाद का प्रसंग पाता है, फिर पृथिवी जल आदि का भेद भी किससे सिद्ध करेंगे ? अतः पृथिवी आदि में अत्यंत भेद मानने पर उपादान-उपादेय भाव घटित नहीं होता । किन्तु इनमें उपादान-उपादेय भाव साक्षात् दिखायी देता है। अब इसी को बताते हैं-चन्द्रकान्तमणि पृथिवी कायिक होता है किन्तु उससे जल उत्पन्न होता है, तथा जल से पृथिवी स्वरूप मोती उत्पन्न होते हैं, काष्ठ से अग्नि उत्पन्न होती है, पंखे से वायु उत्पन्न होती है। इतने उदाहरणों से स्पष्ट हुअा कि पृथिवी जल आदि में परस्पर उपादान-उपादेय भाव हैं ये एक दूसरे से उत्पन होते रहते हैं। वैशेषिक-चन्द्रकांत मणि से जल बनता है इत्यादि बातें आपने कही सो उसमें यह रहस्य है कि चन्द्रकांत आदि में जलादिक छिपे रहते हैं उस जल से ही जल उत्पन्न होता है न कि पृथिवी रूप चन्द्रकान्त से ? __ जैन-यह कथन गलत है, चन्द्रकान्त आदि में जल आदिक छिपे रहते हैं ऐसा सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है, बिना प्रमाण के उनमें जलादिका सदभाव मानेंगे तो मिट्टी आदि में घट आदि पदार्थ मौजूद रहते हैं, उनका सद्भाव भी हमेशा रहता है, ऐसा स्वीकार करना होगा ? और इस तरह सांख्य मत में प्रवेश होवेगा। वे ही हर वस्तु में हर पर्याय मौजूद रहती है, कारण में कार्य सदा विद्यमान है इत्यादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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