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________________ प्रवयविस्वरूपविचार: २४९ चानुसन्धानस्य सविषयत्वमित्यलमतिप्रसंगेन । तन्न परेषां चतुःसंख्यं द्रव्यं यथोपणितस्वरूपं घटते, सर्वथा नित्वस्वभावाणूनामनर्थक्रियाकारित्वेनासम्भवत : तदारब्धद्वयणुकाद्यवयविद्रव्यस्याप्यसंभवात् । न हि कारणाभावे कार्य प्रभवत्यतिप्रसंगात् । स्वावयवेभ्योर्थान्तरस्यावयविनो ग्राहक प्रमाणाभावाच्चासत्त्वम् । व्याप्त होने वाले अवयवों को ग्रहण कर सकते हैं [अथवा रूप और स्पर्श में अनुसंधान कर सकते हैं] किन्तु इतनी बात जरूर है कि अवयवी नामा द्रव्य को स्वीकार करना होगा ? अन्यथा यह बात बन नहीं सकती। विशेषार्थ - बौद्ध को प्रश्न किया गया था कि आप रूपादिमान एक अवयवी द्रव्य क्यों नहीं मानते ? तो उसने उत्तर दिया कि ऐसे द्रव्य का ग्राहक कोई ज्ञान नहीं है, अतः रूप रस आदि धर्म को ही हम लोक मानते हैं रूपादियुक्त द्रव्य को नहीं, तब प्राचार्य ने कहा कि ऐसी बात तो नहीं है, "जिसको मैंने देखा था उसी को इस वक्त स्पर्श कर रहा है" इत्यादि प्रत्यभिज्ञान रूप स्पर्श आदि से युक्त अवयवी द्रव्य को ग्रहण कर रहा है। इस पर बौद्ध ने कहा कि इस ज्ञान को चक्षु तथा स्पर्शनेन्द्रिय ही कर लेंगी । तब जैन ने समझाया है कि यह कार्य असम्भव है, इन्द्रियां परस्पर विषयों का अनुसंधान नहीं कर सकतीं, जोड़ रूप ज्ञान किसी भी इन्द्रिय द्वारा हो नहीं सकता, हां यह बात अवश्य है, अात्मा के वश का यह कार्य हो सकता है, किन्तु वैशेषिक प्रात्मा को जड़ मान बैठे हैं और आप बौद्ध निरन्वय विनाश शील मान बैठे हैं। ऐसा आत्मा जोड़रूप ज्ञानधारी बन नहीं सकता, अनुसंधान करने के लिए तो प्रात्मा को स्वयं चेतन कथंचित् नित्य-नाश रहित स्वीकार करना होगा। तथा इस अनुसंधान के लिए स्पर्शादिमान द्रव्य को पूर्वापर भावों में व्यापक एक अवयवी स्वरूप मानना होगा, अन्यथा यह प्रतीति सिद्ध प्रतिसंधान ज्ञान सिद्ध नहीं हो सकता । इस तरह ज्ञायक-जानने वाला ज्ञानधारी आत्मा और ज्ञेय-जानने योग्य पदार्थ को अनेक धर्म स्वरूप नित्य (कथंचित) और अवयवों में व्यापक द्रव्य स्वरूप स्वीकार करना पड़ता है। प्रत्यभिज्ञान का विषय, उसकी सत्यता प्रादि की सिद्धि पहले ही [ दुसरे भाग में परोक्ष प्रमाणों का वर्णन करते समय ] कर चुके हैं, अब अतिप्रसंग से बस हो ! इस प्रकार शुरु में कहा हुअा वैशेषिकों का जो पृथिवी आदि चार द्रव्यों का वर्णन है वह घटित नहीं होता है, परमाणुगों को सर्वथा नित्य मानना, उन परमाणुषों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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