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________________ श्रवयविस्वरूपविचार: २३३ भागभाव्यवयवग्राहिणा प्रत्यक्षेण परभागभाव्यवयवाग्रहणान्न तेन तद्व्याप्तिरवयविनो ग्रहीतुं शक्या, व्याप्यग्रहणे तद्व्यापकस्थापि ग्रहीतुमशक्तेः । प्रयोगः - यद्येन रूपेण प्रतिभासते तत्तथैव तद्व्यवहारविषय: यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तद्रूपतयैव तद्व्यवहारविषयः, अर्वाग्भागभाव्य वयवसम्बन्धितया प्रतिभासते चावयवीति । न च परभागभाविव्यवहितावयवाप्रतिभासनेप्यव्यवहितोऽवयवी प्रतिभातीत्यभिधातव्यम्; तदप्रतिभासने तद्गतत्वेनास्याऽप्रतिभासनात् । तथाहि - यस्मिन्प्रतिभासमाने यद्रूपं न प्रतिभाति तत्ततो भिन्नम् यथा घटे प्रतिभासमानेऽप्रतिभासमानं पटस्वरूपम्, न प्रतिभासते मध्य के पिछले भाग के बहुत से अवयव प्रतिभासित होते ही नहीं । जब सारे अवयव प्रतीत नहीं होते तो आपकी दृष्टि से अवयवी प्रतीत होगा ही नहीं । वैशेषिक – बहुत से प्रवयव ग्रहण हो जाने पर अथवा बार बार अवयवों को - ग्रहण करने पर अवयवी प्रतिभासित होता है, ऐसा हम मानते हैं ? । जैन - यह कथन प्रयुक्त है, अवयवी के इस तरफ के भाग के अवयव को ग्रहण करने वाला जो प्रत्यक्ष ज्ञान है उसके द्वारा परले तरफ के भाग के श्रवयव ग्रहण होते नहीं, अतः उन अवयवों से व्याप्त जो अवयवी है, उसका ग्रहण होना शक्य है, व्याप्य के ग्रहण किये बिना उसके व्यापक का ग्रहण होना असम्भव है अनुमान से यही सिद्ध होगा कि जो जिस रूप से प्रतीत होता है वह उसी रूप से व्यवहार का विषय हुआ करता है, जैसे नील पदार्थ नीलरूप से प्रतीत होता है तो नीलरूप ही व्यवहार में आता है, अवयवी प्रादि के बारे में भी यही बात है, इस तरफ के भाग के अवयवों के सम्बन्धरूपसे मात्र अवयवी प्रतीत होता है [ परले भाग में स्थित अवयवों के सम्बन्धरूप से तो प्रतीत होता नहीं ] अतः उसको उसी रूप से व्यवहार का विषय मानना चाहिए ? वैशेषिक - परभाग में होने वाले व्यवहित अवयव यद्यपि प्रतीत नहीं होते किन्तु उनसे अव्यवहित ऐसा श्रवयवी तो प्रतीत होता ही है ? जैन - ऐसा नहीं कहना, जब परले भाग में स्थित अवयव प्रतीत नहीं हो रहे हैं तब उसमें रहने वाला अवयवी कैसे प्रतीत होगा ? नहीं हो सकता । अनुमान प्रयोग - जिसके प्रतीत होने पर जो रूप प्रतीत नहीं होता वह उससे भिन्न है, जैसे घट के प्रतीत होने पर पटका रूप प्रतीत नहीं होता अतः वह उससे भिन्न माना जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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