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________________ २१६ प्रमेयकमलमार्तण्डे यच्चोक्तम्-'द्रव्यादयः षडेव पदार्थाः प्रमाणप्रमेयाः' इत्यादि ; तदप्युक्तिमात्रम् ; द्रव्यादिपदार्थषट्कस्य विचारासहत्वात् ; तथाहि-यत्तावच्चतुःसंख्यं पृथिव्यादिनित्यानित्यविकल्पाविभेदमित्युक्तम् ; तदयुक्तम् ; एकान्तनित्ये क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । तल्लक्षणसत्त्वस्यातो व्यावृत्त्याऽसत्त्वप्रसङ्गात् । यदि हि परमाणवो द्वयणुकादिकार्यद्रव्यजनन कस्वभावाः; तहि तत्प्रभव की विलक्षणता से पदार्थों का नानापना सिद्ध होता है, किन्तु प्रत्यभिज्ञान, सामान्यविशेष, संशय ज्ञान, मेचक ज्ञान इत्यादि में प्राकारों की विलक्षणता होते हुए भी नानापन सिद्ध नहीं होता है । विशेषार्थ-आत्मा आदि पदार्थों को अनेक धर्मात्मक सिद्ध करने के लिए जैन ने उदाहरण प्रस्तुत किया कि जिस प्रकार एक ही आत्म द्रव्य में सुख दुःख आदि का व्यावृत्तिरूप प्रतिभास होता है और चैतन्यपना, सत्वपना आदि का अनुगत रूप प्रतिभास भी होता है अतः अनेकत्व सिद्ध है, वैसे ही प्रत्येक द्रव्य या पदार्थ में अनेकत्वअनेकधर्मात्मकपना है, इस पर वैशेषिक ने कहा कि सुख दुःख आदिक आत्मा से पृथक हैं, क्योंकि इनमें भिन्न-भिन्न आकार-प्रतिभास हुआ करते हैं। तब आचार्य ने समझाया कि सर्वत्र आकारों के भेद से पदार्थ भेद नहीं हुआ करता, इस बात की स्पष्टता करने के लिये चार दृष्टांत दिये-प्रत्यभिज्ञान, सामान्यविशेष, संशय ज्ञान, और मेचक ज्ञान । इन चारों दृष्टान्तों का खुलासा इस प्रकार है-प्रत्यभिज्ञान में दो आकार-प्रतिभास होते हैं एक तो वर्तमान का ग्रहणरूप और दूसरा भूतकाल का स्मरणरूप, जैसे यह वही देवदत्त है जिसको मैंने कल देखा था। सो ये दो आकार होते हुए भी इस ज्ञानको एक रूप ही माना है। ऐसे ही यह रोझ गाय के समान है, यह भैंस गाय से विलक्षण ही दिखाई देती है, छह पैर वाला भ्रमर होता है, पाठ पैर वाला अष्टापद होता है इत्यादि प्रत्यभिज्ञान जोड़रूप होने से दो प्राकार वाले हैं किन्तु ये एक एक ज्ञान कहलाते हैं । सामान्य धर्म में विविधता देखी जाती है जैसे गोपना गायों में तो सबमें होने से सामान्य है किन्तु वही गोत्व अश्व आदि विभिन्न पशु जातियों की अपेक्षा विशेष बन जाता है अतः सामान्य में सजातीयता की दृष्टि से समानत्व या साधारण सामान्य है और वही विजातीयता की दृष्टि में विशेष आकार को धारण कर लेता है अतः अनेकपना से युक्त है। संशय ज्ञान में चलित प्रतिभास होने से दो कोटियाँ रहती है कि क्या यह ठूट है अथवा पुरुष है ? यह रजत है या सीप है ? इत्यादि एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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