________________
१९८
प्रमेयकमलमार्तण्डे 'तन्तवः पट' इति संज्ञाभेदोप्यवस्थाभेदनिबन्धनो न पुनद्रव्यान्तरनिमित्तः । योषिदादिकरव्यापारोत्पन्ना हि तन्तवः कुविन्दादिव्यापारात्पूर्व शीतापनोदाद्यर्थासमर्थास्तन्तुव्यपदेशं लभन्ते, तद्वयापारात त्तरकालं विशिष्टावस्थाप्राप्तास्तत्समर्थाः पटव्यपदेशमिति ।
विभिन्नशक्तिकत्वाद्यप्यवस्थाभदमेव तन्तूनां प्रसाधयति न त्ववयवावयवित्वेनात्यन्तिकं भेदम् ।
यच्चोक्तम् -'पटस्य भावः' इत्यभेदे षष्ठी न प्राप्नोतीति; तदप्यप्रयुक्तम् ; 'षण्णां पदार्थानामस्तित्वम्, षण्णां पदार्थानां वर्ग:' इत्यादी भेदाभावेपि षष्ठयाद्युत्पत्तिप्रतोते:। न हि भवता
"तन्तवः, पटः” इत्यादि नाम भेद तो अवस्था के भेद के कारण होता है, न कि भिन्न-भिन्न द्रव्यों के कारण । स्त्री आदि के हाथों के व्यापार-चरखा चलना आदि क्रिया से तन्तु-सूत उत्पन्न होते हैं, वे जब तक जुलाहा आदि के हाथों में जाकर ताना बाना आदि रूप से बुने नहीं जाते तब तक तन्तु नाम को पाते हैं, और शीत, गरमी आदि की बाधा दूर करने में असमर्थ रहते हैं, जब वे जुलाहा आदि द्वारा बुने जाकर आगे विशिष्ट अवस्था को प्राप्त होते हैं तब वे शीत बाधा दूर करने आदि में समर्थ होकर "पट' ऐसा नाम पाते हैं। पट में भिन्न शक्ति है और तन्तुओं में भिन्न शक्ति है अतः दोनों सर्वथा भिन्न हैं ऐसा वैशेषिक ने कहा सो यह भेद अवस्था भेद के कारण ही है, इससे अवयव और अवयवी स्वरूप, तन्तु और वस्त्र आदि में सर्वथा भेद सिद्ध नहीं हो सकता है।
वैशेषिक ने कहा कि यदि वस्त्र और तन्तु आदि में सर्वथा भेद नहीं मानेंगे तो "पटस्य भावः पटत्वं' इत्यादि षष्ठी विभक्ति एवं तद्धितका "त्व" प्रत्यय नहीं बन सकता इत्यादि सो बात अयुक्त है, छह पदार्थों का ( द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय ) अस्तित्व है, छह पदार्थों का वर्ग है इत्यादि वाक्यों में छह पदार्थ और उनका अस्तित्व भिन्न नहीं होते हुए भी षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त हुई है । आपने' द्रव्य अादि छहों पदार्थों के अतिरिक्त अस्तित्वादि स्वीकार नहीं किया है जिससे षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त होती।
वैशेषिक-जो सत्रूप होता है वह ज्ञापक प्रमाण का विषय हुआ करता है, उस सत का जो भाव है वह सत्व कहलाता है जो कि सत्ता ग्राहक प्रमाण का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org