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अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः अत्र प्रतिविधीयते । अनेकधर्मात्मकत्वेनार्थस्य ग्राहकप्रमाणाभावोऽसिद्धः; तथाहि-वास्तवानेकधर्मात्मकोर्थ :, परस्परविलक्षणानेकार्थक्रियाकारित्वात्, पितृपुत्रपौत्रभ्रातृभागिनेयाद्यनेकार्थक्रियाकारिदेवदत्तवत् । न चायमसिद्धो हेतुः; अात्मनो मनोज्ञांगनानिरीक्षणस्पर्शनमधुरध्वनिश्रवणताम्बूलादिरसास्वादनकर्पू रादिगन्धाघ्राणमनोज्ञवचनोच्चारणचक्रमणावस्थानहर्षविषादानुवृत्तव्यावृत्तज्ञानाद्यन्योन्यविलक्षणानेकार्थक्रियाकारित्वेन अध्यक्षतोनुभवात् । घटादेश्च स्वान्यव्यक्तिप्रदेशाद्यपेक्षयानुवृत्तव्यावृत्तसदसत्प्रत्ययस्थानगमनजलधारणादिपरस्पर विलक्षणानेकार्थक्रियाकारित्वेन प्रत्यक्षतः प्रतीतेरिति । दृष्टान्तोऽपि न साध्यसाधन विकलः; वास्तवानेकधर्मात्मकत्वाऽन्योन्य विलक्षणानेकार्थक्रियाकारित्वयोस्तत्र सद्भावात् ।
उसमें परस्पर विलक्षण ऐसी अनेक प्रकार की अर्थ क्रिया हो रही है, जैसे एक ही देवदत्त नामा पुरुष में परस्पर विरुद्ध ऐसी पिता, पुत्र, पौत्र, भाई, भानजा इत्यादि अनेक प्रकार की अर्थक्रिया हुआ करती है। यह अनेक अर्थक्रियाकारित्व हेतु प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि सुन्दर स्त्री को देखना, स्पर्श करना, उसके मधुर शब्द सुनना, तांबूल आदि रस्व का आस्वादन, कपूर आदि का गन्ध लेना, मनोज्ञ वचनालाप कहना, घूमना, स्थित होना, हर्ष और विषाद युक्त होना अनुवृत्त एवं व्यावृत्त ज्ञानयुक्त होना इत्यादि परस्पर में विलक्षण अनेक अर्थ क्रियायें प्रात्मा में होती हुई प्रत्यक्ष से प्रतीत हो रही हैं।
इसीप्रकार घट आदि में स्वप्रदेश की अपेक्षा अनुवृत्त प्रत्यय होना, पर प्रदेश की अपेक्षा व्यावृत्त प्रत्यय होना अर्थात् घट स्वस्थान में अस्तित्व का बोध कराता है एवं पर स्थान में जहां घट का अभाव है वहां नास्तित्व का बोध कराता है, एक स्थान पर स्थित होना, जल लाने के लिये व्यक्ति के हाथ से गमन करना, जल को धारण करना इत्यादि परस्पर में विलक्षण ऐसी अर्थ क्रियायें होती हुई प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतीत हो रही हैं तथा उपर्युक्त अर्थक्रियाकारित्व हेतु वाले अनुमान में प्रदत्त देवदत्तवत् दृष्टान्त भी साध्य साधन रहित नहीं है, क्योंकि उसमें वास्तविक अनेक धर्मात्मकपना और परस्पर विलक्षण प्रक्रियाकारित्व इन दोनों का सद्भाव पाया जाता है।
शंका-धर्म और धर्मी ये दो भिन्न-भिन्न प्रमाणों द्वारा ग्राह्य होने से इनमें अत्यन्त भेद प्रसिद्ध होता है, अतः एक धर्मी में वास्तविक अनेक धर्म भले ही सिद्ध हो किन्तु उनका तादात्म्य तो सिद्ध नहीं हो सकता ?
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