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________________ अन्वय्यात्म सिद्धि: १८१ गोमहिषेषु चान्योन्यमसाधारणस्वरूपलक्षण इति । तावेवंप्रकारी सामान्यविशेषावात्मा यस्यार्थस्याऽसौ तथोक्तः । स प्रमाणस्य विषय: न तु केवलं सामान्यं विशेषो वा, तस्य द्वितीयपरिच्छेदे 'विषयभेदात्प्रमाणभेदः' इति सौगतमतं प्रतिक्षिपता प्रतिक्षिप्तत्वात् । नाप्युभयं स्वतन्त्रम् ; तथाभूतस्यास्याप्यप्रतिभासनात् । ।। अन्वय्यात्म सिद्धिः समाप्तः ।। __एक कोई गाय आदि पदार्थ है उस पदार्थ से न्यारा सजातीय गाय आदि पदार्थ हो चाहे विजातीय भैंस आदि पदार्थ हो उन पदार्थों को अर्थान्तर कहते हैं, उनमें होने वाली विसदृशता या विलक्षणता ही व्यतिरेक विशेष कही जाती है, जैसे कि गाय भैंसादि में हुआ करती है अर्थात् अनेक गो व्यक्तियों में यह खण्डी गाय या बैल है, यह मुण्ड है ( जिसका पर आदि खण्डित हो वह गो खण्ड कहलाती है तथा जिसका सींग टूटा हो वह मुण्ड कहलाती है ) इत्यादि विसदृशता का परिणाम दिखायी देता है और भैंसों में यह बड़ी विशाल है, यह बहुत बड़े सींग वाली है इत्यादि विसदृशता पायी जाती है, तथा गाय और भैंस ग्रादि पशुओं में परस्पर में जो असाधारण स्वरूप है वही व्यतिरेक विशेष कहलाता है । इसप्रकार पूर्वोक्त सामान्य के दो भेद और यह विशेष के दो भेद ये सब पदार्थों में पाये जाते हैं । अतः सामान्य और विशेष है स्वरूप जिसका उसे सामान्य विशेषात्मक कहते हैं। यह सामान्य विशेषात्मक पदार्थ प्रमाण का विषय होता है, अकेला सामान्य या अकेला विशेष प्रमाण का विषय नहीं होता है । प्रमाण अकेले अकेले सामान्यादि को विषय कैसे नहीं करता इस बात का विवेचन दूसरे अध्याय में प्रमेयभेदात् प्रमाणभेद: माननेवाले बौद्ध का खण्डन करते हुए हो चुका है, अर्थात् सामान्य एक पृथक् पदार्थ है और उसका ग्राहक अनुमान या विकल्प है तथा विशेष एक पृथक् तथा वास्तविक कोई पदार्थ है और उसका ग्राहक प्रत्यक्ष प्रमाण है इत्यादि सौगतीय मत पहले हो खण्डित हो चुका है अतः निश्चित होता है कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं सामान्य विशेषात्मक ही है। कोई कोई परवादी सामान्य और विशेष को एकत्र मानकर भी उन्हें स्वतन्त्र बतलाते हैं, सो वह भी गलत है, क्योंकि ऐसा प्रतिभास नहीं होता है। ॥ अन्वय्यात्मसिद्धि समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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