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________________ १७४ प्रमेयकमलमार्तण्डे क्रमवृत्तिसुखादीनामेकसन्ततिपतितत्वेनानुसन्धाननिबन्धनत्वम् ; इत्यपि तादृगेव; पात्मनः सन्ततिशब्देनाभिधानात् । तेषां कथंचिदेकत्वाभावे नैक पुरुषसुखादिवदेकसन्ततिपतितत्वस्याप्ययोगात् । प्रात्मनोऽनभ्युपगमे च कृतनाशाकृताभ्यागमदोषानुषङ्गः । कर्तु निरन्वयनाशे हि कृतस्य कर्मणो नाशः कर्तुः फलानभिसम्बन्धात्, अकृताभ्यागमश्च अकत्तुरेव फलाभिसम्बंधात् । ततस्तद्दोषपरि. हारमिच्छतात्मानुगमोभ्युपगन्तव्यः । न चाप्रमाणकोयम् ; तत्सद्भावावेदकयोः स्वसंवेदनानुमानयो: प्रतिपादनात् । _ 'अहमेव ज्ञातवानहमेव वेद्मि' इत्यादेरेकप्रमातृविषयप्रत्यभिज्ञानस्य च सद्भावात् । तथा चोक्त भट्टेन बौद्ध- क्रम से होने वाले सुख, दुःख आदि का एक संततिरूप प्रमुख होना है वही अनुसन्धानात्मक ज्ञान का कारण है । जन-- यह कथन भी पहले के समान है, यहां आत्मा को "संतति" शब्द से कहा । जब तक उन सुख-दुःख या हर्ष-विषाद आदि पर्यायों के कथंचित् द्रव्यदृष्टि से एकपना नहीं मानते हैं तब तक अनेक पुरुषों के सुख दुःखादि में जैसे एकत्व का ज्ञान नहीं होता वैसे एक पुरुष के सुखादि में भी एक संतति पतित्व से अनुसन्धान होना शक्य नहीं। __तथा आत्म द्रव्यको नहीं माने तो कृत प्रणाश और प्रकृत अभ्यागम नामा दोष भी उपस्थित होता है, इसीका स्पष्टीकरण करते हैं - जब कर्ता का निरन्वय नाश हो जाता है तब उसके द्वारा किए हुए कर्म का नाश होवेगा फिर कर्ता को उसका फल कैसे मिलेगा ? तथा जिसने कर्म को नहीं किया है उसको फल मिलेगा। अतः इस दोष को दूर करने के लिए आप बौद्धों को अनुगामी एक आत्मानामा द्रव्य को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। यह आत्मा अप्रामाणिक भी नहीं समझना, क्योंकि आत्मा को सिद्ध करने वाले स्वसंवेदन ज्ञान तथा अनुमान ज्ञान हैं, ऐसा प्रतिपादन कर दिया है। आत्मा को सिद्ध करनेवाला और भी ज्ञान है मैंने ही जाना था, अभी मैं ही जान रहा हूं, इत्यादि रूप से एक ही प्रमाता को विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान मौजूद है। भट्ट मीमांसक ने भी कहा है-प्रात्मद्रव्य में हर्ष-विषाद, सुख-दुःख आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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