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न च स्वरूपेण कार्यकारणयोरर्थान्तरभूततत्सम्बन्धकल्पने किञ्चित्प्रयोजनं कार्यकारणतायाः स्वतः सिद्धत्वात् ?
प्रमेय कमलमार्त्तण्डे
ननु कार्याप्रतिपत्तौ कथं कारणस्य कारणताप्रतिपत्तिस्तदपेक्षत्वात्तस्या: ? कथमेवं पूर्वापरभागाप्रतिपत्तौ मध्यभागस्यातो व्यावृत्तिप्रतिपत्तिरपेक्षाकृतत्वाविशेषात् ? ततः पश्यन्नयं क्षणिकमेव पश्यति" इति [ ] वचो विरुध्येत । मध्यक्ष रणस्वभावत्वात्तद्व्यावृत्त: तद्ग्राहिज्ञानेन प्रति
सम्बन्ध भिन्न है और पदार्थों में कार्य कारणपना है तो उस कार्य कारणता को स्वरूप से मानने का प्रसंग आता है । जब पदार्थों में कार्य कारण भाव स्वरूप से ही है तब अर्थांतरभूत (पृथक् ऐसे ) सम्बन्ध को मानने में कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता है, क्योंकि कार्य कारणपना स्वतः स्वरूप से ही सिद्ध हो चुका है ।
ata - कार्य को बिना जाने देखे कारण का कारणपना किसप्रकार जाना जा सकता है ? क्योंकि कार्य की अपेक्षा से ही कारणपना हुआ करता है ।
जैन -- ऐसी बात है तो हम आपसे पूछते हैं कि पूर्व और उत्तर भागों को बिना जाने ( अथवा पूर्व तथा उत्तर क्षण को बिना जाने ) मध्य भाग की ( श्रथवा मध्य क्षण की ) इनसे व्यावृत्ति है ऐसा कैसे जान सकेंगे ? क्योंकि यहां पर भी अपेक्षा कृतपना समान ही है । अर्थात् जैसे कार्य की अपेक्षा से कारण में कारणपना होता है वैसे ही पूर्व आदि भाग की अपेक्षा से मध्य भाग या उसकी व्यावृत्ति हुआ करती है । इसतरह मध्य भाग की व्यावृत्ति करना या मध्य क्षण को व्यावृत्ति करना आप बौद्ध को शक्य हो जायगा, फिर "पश्यन्नयं क्षणिक मेव पश्यति" देखता हुआ योगी क्षणिकको ही देखता है, इत्यादि ग्रापका कथन विरुद्ध पड़ता है
बौद्ध-- मध्य क्षण जो होता है वह पूर्व तथा उत्तर क्षण की व्यावृत्ति स्वभाव वाला ही हुआ करता है, अतः पूर्व उत्तर क्षण को ग्रहण करनेवाले ज्ञानसे उसकी प्रतिपत्ति भी हो जाती है ।
जैन -- इसी तरह कार्य को उत्पन्न करने की जो शक्ति है वही कारण कहलाता है अतः उसको ग्रहण करनेवाले ज्ञान से ही कार्य की प्रतिपत्ति होती है ऐसा भी
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